एक बार फिर से...


हमारी एक साथी, जो हिंदी विभाग, पटना विश्विद्यालय से जुड़ी है, एम.ए की छात्रा है और पिछले कुछ समय से अपने भविष्य और अपने जीवन को लेकर ख़ुद के फैसले लेने की कोशिश कर रही है और अपने अनुसार अपने जीवन को ढालना चाह रही है । वह चाह रही है आगे पढ़ना। प्रेम करना। साथ मिल-जुल कर जीवन के निर्णय लेना। वह अभी शादी करना नहीं चाहती। वह जानती है कि शादी उसके आत्म-निर्णय की राहों को हमेशा के लिए रोक देगी। पैसे के मोल-तोल की यह मर्द वादी शादियाँ घर में भाई और पिता के जोर से चलती हैं। यही हाल है आज उसके घर का कि बड़े भाई का अहम् और पिता का वात्सल्य दोनों ही मिलजुल कर हमारी साथी के भविष्य की हत्या के हर हथकंडे अपना रही है। उसका हरासमेंट हो रहा है कई महीनों से और वह लड़ रही है। वह ना कह रही है। ना, स्पष्ट और साफ़। पर जब से उनका भाई जबरन अगले महीने किसी और लड़के से सगाई फिक्स करता है तब से स्थिति गंभीर हो उठी है। साथी को किस किस तरह के हमले और ताड़ना झेलनी पड़ रही होगी यह उन साथियों से छुपा नहीं है जो पिछले दशक से स्त्रीवादी आंदोलनों में शामिल रहे हैं। आखिर किसी के जीवन के विषय में कोई भी फैसला, बिना उसकी मर्जी के कैसे लिया जा सकता है?  

पर इस लड़ाई में वह अकेली पड़ती गयी है। न तो परिवार में कोई खुल कर पिता और भाई की आलोचना कर रहा है और न ही विश्विद्यालय और विभाग इस लड़ाई की अहमियत को स्वीकार करना चाह रहा है। और देश के विभिन्न विश्विद्यालयों के भीतर काम करने वाले हिंदी विभागों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। पढ़ाई-लिखाई और शोध आदि तमाम इलाकों में काम-काज को सुचारू रूप से चलाये रखने के लिए स्त्रियों के अतिरिक्त दोहन को अपना जरिया बनाती है। एक किस्म का प्रकट या प्रछन्न मर्दवाद हमारे विभाग होने के तरीके में ही शामिल है। ऐसी स्थिति में घर के कामकाजी दबाव से निकल कर जब वह विभाग में आती हैं तो उनसे ये अपेक्षा की जाती है कि वह विभाग को भी घर समझे! इस तरह घर के भीतर काम-काजी संबंध और बाहर घरेलू सम्बन्ध पर जोर वस्तुतः एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और विभाग होने का नव-उदारवादी आदर्श है। ऐसे में संस्थागत रूप से अगर हिंदी विभाग लड़की के भविष्य के नाम पर परिवार संस्था की नैतिकता को ही पुष्ट करे और अपनी छात्रा पर दबाव डाले कि वह भाई या पिता की बात मान ले। कहे कि उनके निर्णय में दूरदर्शिता है तुम्हारे निर्णय में उतावलापन। अभी नहीं आगे चल कर तुम्हें इस सामंजस्य का बोध होगा। तब हमें कोई आश्चर्य नहीं होता। और यह बात केवल विभाग के लिए ही नहीं उन स्त्रीवादी संगठनों और व्यक्तियों के लिए भी उतनी ही स्पष्ट हैं जो स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को सामाजिक आत्मनिर्णय के गैर-पूंजीवादी तरीकों के संघर्ष से काटते हैं। स्त्री प्रश्न का अकादमीकरण इसी काटने की प्रक्रिया का एक नाम है। 

बहरहाल स्थिति यह है कि स्नातकोत्तर की परीक्षाएं शुरू होने वाली है और हमें नहीं पता कि वह परीक्षा देने आएगी या नहीं? घरवाले उसे आने देंगे या नहीं? वह अपना मास्टर्स पूरा कर पाएगी या नहीं?  और उसका हवाला देकर कहीं उनकी छोटी बहन को भी और दबाया तो नहीं जाएगा? क्या होगा हम नहीं जानते। हो सकता है उसे डरा धमका कर अथवा संवेदनात्मक-कोमल भावों को आहत कर सबकुछ स्वीकार कर लेने को बाध्य होना पड़े। हम नहीं जानते पर हम चीख रहे हैं। हमारी चीखों को बार-बार एक, दो या दस की आवाजों में पहचानने की कोशिश की जाती रही है । हम जो कई इंस्टीट्यूशन्स में बंद है - परिवार, विश्वविद्यालय, ऑफिस.. आदि  और हर जगह हमारी चीखों को दबाया जाता है, हमें compromise करने या manage करने और नैतिक होने का पाठ पढ़ाया जाता है ।हम, जो कि पढ़ रहे हैं या काम कर रहे हैं और अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जीना चाहते हैं । हम अपने आप को परिवार, विश्वविद्यालय या ऑफिस में खट रहे एक मजदूर के रूप में नहीं देखना चाहते और हम मजदूरी व्यवस्था के विरोध में हैं । सामाजिक सम्बन्धों के जड़ और संस्थागत रूपों मसलन परिवार, विश्वविद्यालय, ऑफिस आदि  जगहें अनिवार्यतः मेलजोल के ऐसे दिक्-काल को संयोजित करता है जहाँ हम एक दूसरे को एक-तरफा और अंतर-विरोधग्रस्त तरीके से ही स्वीकार करते हैं। वहां हमारे रोल पहले से तय होते हैं। चलन का निश्चित ढर्रा होता है,  और अंततः परस्पर स्वीकार से बनती सामाजिकता और आत्म-निर्णय की प्रक्रिया इन संस्थागत रूपों में स्थगित होती रहती है। 

देह पर कब्जा मन पर भी कब्जा है। परिवार के भीतर विद्रोह की हिंसात्मक सजा सुनिश्चित है। हिंसा के सहारे स्त्रियों को सदेह दबाया जाता है। पूंजीवादी समाजों को बनाए रखने वाली बाड़ेबंदी में स्त्रीदेह की बाड़ेबंदी अनिवार्य है। वह प्रतिरोध की सजा है। यह हमारी लड़ाई को एकाकी बनाता है।  हर बार ऐसी कोशिशों को किसी एक की निजी समस्या के रूप में देखा जाता है, जबकि यह समस्या किसी एक की व्यक्तिगत ना होकर हम जैसे तमाम लोगों की समस्या है । कब्जे की इस राजनीति को कॉलेज, विश्वविद्यालय या परिवार निजी समस्या बताकर खुद को उससे काटने की कोशिश करता है, जबकि यहाँ हर निजी चीज एक गहरी राजनीति से जुड़ी हुई है ("Personal is political.") । लेकिन प्रगतिशीलता का दम्भ भरने वाले हम लोग इस समस्या को ‘family bond और institutional bond’ के सहारे जबरन पैसे की नैतिकता के दायरे में लाने की कोशिश करते रहते हैं । फिर ऐसी प्रगतिशीलता का क्या करना, जहाँ हमारी पक्षधरता ही स्पष्ट रुप से सामने नहीं आ पाती ? या कहें कि ‘अंतरात्मा की पक्षधरता’ के प्रश्न को सायास दबाया जाता है। 

हमारे बीच कई लोग, जो हमारे ही परिवार में और मित्रों में शामिल हैं, वे सब इस समस्या से जूझते हुए स्वयं को सामाजिक रुप से अलग और अकेला महसूस करते हैं । क्यों आज के समय में भी किसी लड़की या लड़के को परिवार और समाज जैसी संस्थाएँ उसकी मर्जी की जिंदगी जीने से रोकती है और इस शोषण को उनके भविष्य की चिंता के रुप में देखा जाता है ? इस प्रकार की चिंता क्या असल में उसके भविष्य की चिंता है या इस मजूरी व्यवस्था वाले समाज की स्थिति को बरकार रखने की जरूरत है ? परिवार, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, राज्य, देश... ये सभी अलग-अलग नामधारी संस्थाएँ आज इसी प्रकार की राजनीति के तहत काम करती नजर आ रही हैं। ऐसे समाज में अपना हक़ वापस माँगने को अनैतिक, परिवार विरोधी, समाज विरोधी या देश विरोधी के रुप में देखा जाता है । नासमझ और बुड़बक अक्सर इनके लिए पर्यायवाची के समान उपयोग किए जाते हैं। आखिर क्यों बार-बार स्त्रियों को समर्पण, त्याग और समझौते का पाठ पढ़ाया जाता है और उनपर कब्जे को बनाये रखने की कोशिश की जाती है । 

फिलहाल सवाल है हम अपनी उस साथी के संघर्ष में कैसे सहभागी हो सकते हैं जबकि संस्थागत रूप से हमारा साथ होना रोज-ब-रोज की जिंदगियों में पूंजीवादी-मर्दानेपन को ही पुष्ट कर रही है? आखिर हम क्या कर सकते हैं? यह प्रश्न राजनीतिक होकर ही नैतिक है। क्या यह केवल पुलिस में शिकायत दर्ज करवाने भर का मसला है?    

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