निरंकुशतावाद, लोकतंत्र और सर्वहारा की तानाशाही
अ : वर्तमान परिस्थिति में, नवउदारवाद का संकट पूरी दुनिया में (निरंकुश)सत्तावादी शासन के उदय के रूप में प्रकट होता है। इससे एक बार फिर सत्ता-विरोधी राजनीति की समस्या उत्पन्न हो गई है। वामपंथ के एक निश्चित वर्ग का तर्क है कि ऐसे परिदृश्य में हमारा तात्कालिक कार्य उदार लोकतंत्र की रक्षा करना और उसके साथ खड़ा होना होना चाहिए, और यही (निरंकुश)सत्ता-विरोधी राजनीति करने का एकमात्र तरीका है। इस सब में आप कहाँ खड़े हैं? निरंकुशतावाद से आप क्या समझते हैं?
ज : सामान्यतया, निरंकुशतावाद एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह पर प्रभुत्व या शक्ति का प्रयोग है। यह व्यक्तिगत वर्चस्व का एक रूप है, जो मूलतः अलोकतांत्रिक है। लेकिन फिर, सबसे पहले सवाल उठता है कि लोकतंत्र क्या है? क्या लोकतंत्र, जैसा कि हम जानते हैं, स्वयं अलोकतांत्रिक या (निरंकुश)सत्तावादी नहीं है?
अ : लोकतंत्र अलोकतांत्रिक या सत्तावादी कैसे हो सकता है? क्या आप स्वयं का ही खंडन नहीं कर रहे हैं?
ज : हां, लेकिन यह विरोधाभास मेरे दिमाग की उपज नहीं है। वास्तविकता स्वयं विरोधाभासी है। जिसे हम आज लोकतंत्र कहते हैं वह वास्तव में प्रतिनिधि लोकतंत्र है। यह लोगों के गठन की परिकल्पना करता है, जो पारस्परिक समतुल्यता के अपने तर्क को राज्य के रूप में बाहरी बनाता है। ऐसी परिस्थितियों में, व्यक्ति इस स्पष्ट बाहरी शक्ति की मध्यस्थता के माध्यम से ही स्वयं को 'स्वतंत्र' नागरिक के रूप में पहचान सकते हैं। लेकिन ये जनता क्या हैं? क्या यह अमूर्तन नहीं है? व्यक्तियों को उनकी गतिविधियों से अलग कर दिया गया और एक सजातीय समूह में बदल दिया गया जिसे ‘जनता’ कहा जाता है - क्या यह एक तर्कहीन और हिंसक प्रक्रिया नहीं है?
अ : क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि उदार लोकतंत्र की बुनियाद ही अनुदार और हिंसक है?
ज : हाँ, जनता की अवधारणा का निर्माण ही एक हिंसक प्रक्रिया है। मार्क्स इसे तथाकथित आदिम संचय की हिंसा कहते हैं, श्रम को श्रम-शक्ति से अलग करना, भले ही बाद वाला एक अमूर्तन, एक माल के रूप में उभरता है। जीवित रहने के लिए श्रमिक को अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है क्योंकि उसके पास बेचने के लिए और कुछ नहीं है। श्रम-शक्ति को माल के रूप में बनाने की यह हिंसक प्रक्रिया व्यक्तियों के एक सजातीय समूह के निर्माण की प्रक्रिया है, जो एक-दूसरे के प्रति उदासीन होते हैं, जिन्हें जनता कहा जाता है। अब, केवल नागरिक समाज के श्रम बाजार में (या अधिक सटीक रूप से, नागरिक समाज ही बाजार है), वे बाहरी राज्य-रूप की मध्यस्थता के माध्यम से एक-दूसरे को 'स्वतंत्र' नागरिकों के रूप में पहचान सकते हैं। इस बाज़ार में, हर कोई निजी संपत्ति का मालिक है और "हर किसी को एक-दूसरे में निजी मालिकों के अधिकारों को पहचानना चाहिए"। यहाँ, श्रमिक अपनी श्रम-शक्ति के लिए अधिक से अधिक कीमतों के लिए या बढ़े हुए प्रतिनिधित्व और मान्यता के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए स्वतंत्र हैं। नागरिक समाज का यह मछली बाज़ार "स्वतंत्रता, समानता, संपत्ति और बेंथम" का क्षेत्र है। औपचारिक स्वतंत्रता का यह क्षेत्र, जहाँ व्यक्ति कानूनी और 'तर्कसंगत' आत्म के रूप में कार्य करता है, न केवल अपने स्वयं के गठन की हिंसा को छुपाता है बल्कि अपने तर्क को हिंसक रूप से मजबूत भी करता हैं।
अ : ठीक है, आप कह रहे हैं कि यह नागरिक (बाज़ार) समाज एक झूठा समाज है। यह न केवल समानता और स्वतंत्रता का भ्रम पैदा करता है बल्कि इस भ्रम के माध्यम से यह सच्ची स्वतंत्रता और समानता की संभावना को भी ख़त्म कर देता है। लेकिन यहाँ भ्रम की स्थिति है। प्रारंभ में आपने कहा था कि निरंकुशता व्यक्तिगत प्रभुत्व का एक रूप है। लेकिन, यहाँ बाजार समाज में कोई भी दूसरे पर हावी नहीं हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अन्य सभी से प्रतिस्पर्धा करने के लिए समान रूप से स्वतंत्र है। फिर हम इस नागरिक (बाज़ार) समाज को निरंकुशतावादी कैसे कह सकते हैं?
ज : यह एक अच्छा प्रश्न है! इस भ्रम के कारण, प्रतिनिधि लोकतंत्र और निरंकुशतावाद के बीच केवल झूठा विरोध ही बार-बार सामने आता है। समस्या आपके प्रश्न की रूपरेखा में ही है। आपने कहा, "हर कोई एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने के लिए समान रूप से स्वतंत्र है"। हर कोई जो सोचता है कि उसकी श्रम-शक्ति के मूल्य को पहचाना नहीं गया है या उसका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं किया गया है, वह नागरिक समाज के श्रम बाजार में हर किसी के साथ संघर्ष और प्रतिस्पर्धा कर सकता है। लेकिन इस प्रतियोगिता का आधार क्या है? क्या चीज़ उन्हें प्रतियोगिता के लिए 'समान रूप से स्वतंत्र' बनाती है? क्या यह समानता किसी अमूर्त गुण की ओर संकेत नहीं करती? समान होने का यह अमूर्त गुण क्या है?
मार्क्स हमें दिखाते हैं कि समान होने का यह अमूर्त गुण "अमूर्त रूप में मानव श्रम" या मूल्य है, जो विभिन्न मालों के बीच विनिमय संबंधों का आधार है (हमारे समाज में श्रम-शक्ति स्वयं एक माल है)। समान होने का यह अमूर्त गुण व्यक्तियों के उनके उत्पादन और निर्वाह के साधनों से हिंसक अलगाव से उत्पन्न होता है। यह उन्हें श्रमिकों में बदल देता है, जो उजरती मजदूर हैं या माल के रूप में श्रम-शक्ति के मालिक हैं। मूल्य के रूप में, प्रत्येक व्यक्ति की श्रम-शक्ति गुणात्मक रूप से प्रत्येक दूसरे व्यक्ति की श्रम-शक्ति के बराबर और मात्रात्मक रूप से तुलनीय होती है। यह मात्रात्मक तुलनीयता 'मुक्त' प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति मनुष्य होने के इस अमूर्त गुण की एक विशिष्ट इकाई के रूप में कार्य करता है। यह गुणात्मक समानता विभिन्न व्यक्तियों के बीच मात्रात्मक पदानुक्रम उत्पन्न करती है। कुछ को अधिक मनुष्य और कुछ को कम मनुष्य के रूप में पहचाना जाता है। उदाहरण के लिए, पिता-पुत्र के रिश्ते में पिता को अधिक मनुष्य और पुत्र को अपेक्षाकृत कम मनुष्य माना जाता है, लेकिन पुत्र भी पिता से प्रतिस्पर्धा करने के लिए स्वतंत्र है क्योंकि वह भी मनुष्य है। लेकिन उनमें से किसी को भी मनुष्य की सत्ता को चुनौती देने का अधिकार नहीं है, जो पिता और पुत्र के बीच पदानुक्रम का वास्तविक आधार है। आप देखिए, हमारे समाज में सत्ता इसी तरह काम करती है।
मनुष्य होने का यह अमूर्त गुण वह निर्वैयक्तिक शक्ति है, जो हमारे मस्तिष्क के पीछे मानो कार्य करती है। यह निर्वैयक्तिक शक्ति हमारे समाज की सत्ता है, जो पूँजीवाद-पूर्व समाजों की सत्ता से मौलिक रूप से भिन्न है। स्वामी द्वारा दास का या सामंती स्वामी द्वारा भूदास का व्यक्तिगत प्रभुत्व मनुष्य होने की अमूर्त निर्वैयक्तिक शक्ति पर आधारित नहीं था। उन समाजों में दासों और भूदासों को मनुष्य भी नहीं माना जाता था। इसका मतलब यह नहीं है कि व्यक्तिगत वर्चस्व हमारे समाज से चला गया है, बल्कि आपसी प्रतिस्पर्धा से अनुप्राणित व्यक्तिगत वर्चस्व न केवल मनुष्य होने की अमूर्तता की निर्वैयक्तिक शक्ति द्वारा संभव है, बल्कि उसी से चालित है।
इसलिए, सत्ता-विरोधी कोई भी राजनीति, जो एक साथ इस अमूर्त निर्वैयक्तिक शक्ति को चुनौती नहीं देती है और खुद को केवल अधिक मान्यता और प्रतिनिधित्व के संघर्ष तक सीमित रखती है, न केवल उलटी है बल्कि प्रतिक्रियावादी भी है। यह पूंजी की निर्वैयक्तिक शक्ति को मजबूत करता है, क्योंकि मान्यता और प्रतिनिधित्व का तर्क पूंजी की निर्वैयक्तिक शक्ति का तर्क है । इसीलिए बुर्जुआ प्रतिनिधि लोकतंत्र स्वाभाविक रूप से (निरंकुश)सत्तावादी है। यह निश्चित रूप से पूंजी की तानाशाही है।
अ : क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि प्रतिनिधित्व या मध्यस्थता समाधान नहीं है, बल्कि स्वयं समस्या है?
ज : हाँ, प्रतिनिधित्व या मध्यस्थता श्रम-शक्ति के अस्तित्व को माल या व्यक्तिबद्ध कर्ता की तरह पूर्वाशित करती है। सुसंगत वैयक्तिक आत्म के इकाइयों के निर्माण की प्रक्रिया तथाकथित आदिम संचय की हिंसक प्रक्रिया है। यह हिंसा तभी शांति का रूप धारण करती है जब व्यक्तिगत आत्म की इकाइयाँ अपेक्षाकृत स्थिर (या अधिक सटीक रूप से अपेक्षाकृत कम अस्थिर) होती हैं। इसलिए, लोकतंत्र की अपनी उपस्थिति को बनाए रखने के लिए भी, बुर्जुआ प्रतिनिधि लोकतंत्र को व्यक्तिगत आत्म की इकाइयों के अपेक्षाकृत स्थिर पदानुक्रम की आवश्यकता होती है।
लेकिन वर्ग-संघर्ष के स्तर में वृद्धि और इसके परिणामस्वरूप उत्पादन के स्वचालन के स्तर में वृद्धि के कारण, पूंजी के परिवर्तनशील भाग और उसके स्थिर भाग का अनुपात अब इस हद तक कम हो गया है कि सामाजिक-व्यवस्था का अपेक्षाकृत स्थिर पदानुक्रम, श्रम का तकनीकी विभाजन स्थायी संकट की स्थिति में चला गया है। इसका अर्थ है वैयक्तिक श्रमिक आत्म की बढ़ती अस्थिरता और माप और प्रतिनिधित्व के संकट का गहरा होना। नवउदारवाद इसी स्थायी संकट का नाम है।
इसलिए, नवउदारवाद के उद्भव के साथ, प्रतिनिधि लोकतंत्र का उदारवादी रूप भी ध्वस्त हो गया है। अब यह लगभग वैसा ही प्रतीत होता है जैसी यह हमेशा से रहा है: एक अनुदार और (निरंकुश)सत्तावादी व्यवस्था। अस्तित्व की इस अत्यधिक अस्थिर स्थिति में, व्यक्तिपरक वैयक्तिकरण की प्रक्रिया, जैसा कि यह होती है, केवल एक भाग पर दूसरे द्वारा प्रत्यक्ष दबाव के माध्यम से ही संचालित हो सकती है। इस प्रत्यक्ष हिंसा के माध्यम से ही समाज की व्यक्तिपरक रूप से अलग-अलग इकाइयां खुद को अपेक्षाकृत स्थिर कर सकती हैं, जो अमूर्तता और मध्यस्थता या प्रतिनिधित्व के निर्वैयक्तिक तर्क के संचालन के लिए एक आवश्यक शर्त है। इसका यह भी अर्थ है कि जितना अधिक हम मध्यस्थता या प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करेंगे, व्यवस्था उतनी ही अधिक हिंसक और (निरंकुश)सत्तावादी होती जाएगी।
तो, इस स्थिति में, निरंकुशतावाद की सच्ची आलोचना तभी संभव है जब यह मूल रूप से अमूर्तन और प्रतिनिधित्व के निर्वैयक्तिक तर्क की व्यावहारिक आलोचना हो। अन्यथा, सत्ता-विरोधी होने के नाम पर हम केवल सत्तावाद के एजेंट बनकर रह जायेंगे।
अ : लेकिन यदि मध्यस्थता या प्रतिनिधित्व स्वयं निरंकुशतावादी है, तो उन सामाजिक समूहों को क्या करना चाहिए जो सबल्टर्नाइजड हैं? क्या उन्हें अपने सबल्टर्नाइजेशन के खिलाफ लड़ने के लिए अपना अलग संगठन या राजनीतिक दल नहीं बनाना चाहिए?
ज : यदि पार्टी या प्रतिनिधित्व का तौर-तरीका स्वयं ही सबल्टर्नाइजेशन का गठन करता है तो कोई पार्टी या वैकल्पिक प्रतिनिधि रूप बनाकर सबल्टर्नाइजेशन के खिलाफ कैसे लड़ सकता है! आप जितना अधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त करेंगे, आप उतना ही अधिक सबल्टर्नाइजड उत्पन्न करेंगे। स्पष्ट रूप से इसका मतलब यह नहीं है कि सबाल्टर्न- जिन्हें पूरी तरह से या ठीक से मापा या प्रस्तुत नहीं किया गया है -उन्हें अपने सबाल्टर्नाइजेशन के खिलाफ संघर्ष नहीं करना चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि ऐसे संघर्षों की पद्धति और दिशा क्या होगी? क्या उन्हें माप और प्रतिनिधित्व के पक्ष में होना चाहिए या उनके विरुद्ध?
जब सबाल्टर्न का संघर्ष अमूर्तन और मध्यस्थता या प्रतिनिधित्व के निर्वैयक्तिक तर्क के विरुद्ध निर्देशित होता है, तभी यह सबल्टर्नाइजेशन के विरुद्ध वास्तविक संघर्ष होता है, क्योंकि सबाल्टर्न अपने आप में पूंजी के निर्वैयक्तिक तर्क से बाहर नहीं है, बल्कि पूंजी के इस निर्वैयक्तिक तर्क के द्वारा ही सबाल्टर्न के रूप में उपस्थित है।
इसलिए, अपने उत्पीड़कों से लड़ते समय, जब सबाल्टर्न की लड़ाई भी स्वयं के खिलाफ निर्देशित होती है, जिसका अर्थ है पूंजी के निर्वैयक्तिक तर्क के खिलाफ लड़ाई, तभी वे सर्वहारा बन पाएंगे। इसका यह भी अर्थ है कि केवल सर्वहारा वर्ग ही निरंकुशतावाद के लिए वास्तविक खतरा उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि सर्वहारा का अस्तित्व ही सत्ता के विरुद्ध है।
अ : लेकिन, यहाँ विरोधाभास आता है! पूंजी की निर्वैयक्तिक शक्ति के विरुद्ध सर्वहारा के रूप में अपनी रक्षा और विस्तार करने के लिए, आपको एक जन पार्टी की आवश्यकता है। लेकिन, जैसा कि आपने कहा, ऐसी किसी भी पार्टी का गठन, जो सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि होने का दावा करती है, पूंजी की निर्वैयक्तिक शक्ति के तर्क को मजबूत करेगी। इसका अर्थ पूंजी के संदर्भ में इसके रूपांतरण के आधार पर एक बार फिर सर्वहारा वर्ग का नकार है।
ज : हाँ, यह एक ऐतिहासिक विरोधाभास है। एक स्वतंत्र समाज के निर्माण के लिए, आपको अमूर्तन और मध्यस्थता/प्रतिनिधित्व के निर्वैयक्तिक तर्क के खिलाफ लड़ने की जरूरत है, लेकिन जोखिम यह है कि अगर संघर्ष को व्यापक नहीं किया जाता है - यानी, यह विश्व-क्रांति का रुख नहीं लेता है - तो यह है लड़ने वाले शरीर के भीतर से, मध्यस्थता के एजेंट में रूपांतरित होने का स्पष्ट और वर्तमान खतरा हमेशा बना रहता है। यह स्टालिनवाद की ऐतिहासिक समस्या है।
अ : तो फिर हम स्टालिनवाद से कैसे लड़ सकते हैं?
ज : स्टालिनवाद का एकमात्र सच्चा विरोध "सर्वहारा की तानाशाही" है!
अ : क्या? यह बहुत भ्रामक और विरोधाभासी लगता है। क्या स्टालिनवाद स्वयं एक तानाशाही नहीं है? और यदि आप कह रहे हैं कि सर्वहारा स्वाभाविक रूप से सत्ता विरोधी है तो वह तानाशाही कैसे हो सकता है?
ज : देखिए, सर्वहारा की तानाशाही लेनिनवादी पार्टी-राज्य के स्वरूप की तानाशाही नहीं है। वे परस्पर विरोधी हैं। पार्टी की तानाशाही की शुरुआत सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की विफलता से ही होती है। लेकिन फिर भी सवाल यह है कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही क्या है?
ऐंगल्स इसे "नॉन-स्टेट स्टेट" कहते हैं। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही समाज के स्व-संगठन की एक विधा है, जो किसी भी मध्यस्थता या प्रतिनिधित्व से मुक्त है। यह बुर्जुआ राज्य के उन्मूलन और किसी भी स्थान पर उसके अमूर्त और निर्वैयक्तिक प्रभुत्व की शक्ति के उन्मूलन के साथ शुरू होता है और विश्व स्तर पर अपने स्वयं के क्रांतिकारी सामान्यीकरण की प्रक्रिया में समाप्त हो जाता है। यह "प्रत्यक्ष उत्पादकों का मुक्त संघ" है। यह सामाजिक आत्मनिर्णय या साम्यीकरण की प्रक्रिया है। यह शब्द के सच्चे अर्थों में लोकतंत्र है, जैसा कि हमने "पेरिस कम्यून" के मामले में अनुभव किया है।
अ : लेकिन अगर यह इतना ही लोकतांत्रिक है तो इसे तानाशाही क्यों कहें?
ज : क्योंकि यह पूंजी के लिए तानाशाही है। यह उन ताकतों के लिए तानाशाही है, जो मध्यस्थता या प्रतिनिधित्व के बुर्जुआ तर्क को फिर से लागू करना चाहते हैं। यह निर्वैयक्तिक शक्ति के बुर्जुआ प्राधिकार (राज्य) के समर्थकों के लिए तानाशाही है, क्योंकि यह इसे हिंसक रूप से तोड़ देता है।
उसी प्रकार, यह लेनिनवादी पार्टी-रूप के लिए भी तानाशाही है जो सर्वहारा का प्रतिनिधि होने का दावा करती है। सर्वहारा वर्ग को छोड़कर कोई भी सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। यह एक वर्ग के रूप में सर्वहारा वर्ग के आत्म-निषेध की प्रक्रिया है। यह वर्गहीन समाज के निर्माण की प्रक्रिया है। इसलिए, यह उन लोगों के लिए एक ख़तरा है जो इसका उपयोग राज्य-सत्ता पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य से करना चाहते हैं और इसके सत्ता-विरोधी बल को नकारना चाहते हैं। तो, यह (निरंकुश)सत्तावादियों के लिए तानाशाही है।
हमारे लिए असली आज़ादी उनके लिए तानाशाही है!
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