कम्युनिज़्म का अ-व्याकरण


 

 
                                
(यह लेख जॉन होल्वे की किताब "क्रैक कैपिटलिज्म के बंगला अनुवाद की भूमिका के लिए लिखा गया और प्रकाशित हुआ है ।)



इस वक्त इस किताब का हिंदुस्तान में छपना स्वाभाविक ही लगता है। एक तरफ प्रगतिशील राज्यवादी धाराएँ फासीवाद से संघर्ष के नाम पर उदारवाद और कल्याणकारी संस्थाओं की पहरेदारी करने में लगी हैं, तो दूसरी तरफ व्यवस्था लगातार अपनी दरारों को छुपाने के लिए आपातकालिक उपायों पर निर्भर रह रही है। संकट को अवसर बनाने के फेर में बड़े संकट पैदा कर रही है। हम यह भी कह सकते हैं कि व्यवस्था अपने एक संकट का निवारण दूसरे संकट द्वारा ही कर पा रही है।

 

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परंतु संकट आखिर क्या है? शायद इस किताब का सबसे महत्वपूर्ण सैद्धांतिक पहलू उस मौलिक मार्क्सवादी शिक्षा पर जोर है जिसके अनुसार पूंजीवाद का आधार मानवीय गतिविधियों का सामाजिक दृष्टि से आवश्यक श्रम काल के साथ ताल-मेल होता है। सारे संकटों का जड़ हमारा बेताल होना है। तभी तो, हॉलोवे बताते हैं, "पूंजीपति नहीं, हम संकट के कारण हैं।" आर्थिक, राजनीतिक और अन्य प्रकार के प्रबंधनात्मक विकास इसी ताल-मेल को बनाए रखने के लिए होते हैं। परंतु बेताल हो जाने की और व्यवस्थाई असन्तुलन की समस्या पूंजीवाद पर हमेशा मंडराती रहती है। व्यवस्था के दीवारों की लगातार मरम्मत होने के बावजूद हमारे करने से ही छोटी बड़ी दरारें लगातार बनती और फैलती रहती हैं "जहां से मसीह प्रवेश कर सकता है" (वाल्टर बेंजामिन, ऑन द कॉन्सेप्ट ऑफ हिस्ट्री)।

 


पूंजीवादी सामाजिक संश्लेषण और सटाव निरंतर खतरे में है। उसका व्याकरण आज गहरे संकट में है। इस व्याकरण के तहत क्रियाओं और कृत्यों की स्वच्छंदता और बहुआयामीता पर एक ही क्रिया, अस्ति (होना) का वर्चस्व स्थापित होता है। यही अस्तित्व अथवा सत्त्व संज्ञाओं और क्रियाओं के बीच पदक्रमात्मक सम्बन्ध पैदा करते हैं। (देखें, हॉलोवे की पुस्तक चेंज द वर्ल्ड विदआउट टेकिंग पावर) केवल इसी रूप में पूंजीवादी सामाजिक पुनरुत्पादन संभव है। परंतु ये विभिन्न प्र-क्रियाएँ संकट ले कर आती हैं। ये संज्ञाएँ तो बनाती हैं - पण्यों, द्रव्यों, इत्यादि सभी का तो राज यही हैं परंतु उनकी सत्ता को कभी स्थिर नहीं रहने देतीं। जैसे ही पण्यों को हम पण्यीकरण, द्रव्यों को द्रव्यीकरण समझते हैं तो हमे इन संज्ञाओं की अस्थिरता साफ दिखती है। जैसाकि अर्न्स्ट ब्लॉक ने कभी कहा था कि अस्तित्व की बंद, गतिहीन अवधारणा की तिलांजलि से ही उम्मीद का अस्ल आयाम खुलता है (अर्न्स्ट ब्लॉक, द प्रिंसिपल ऑफ होप, भाग 1)। मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिज़्म के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही कहा था, और यही हम हॉलोवे के इस काव्यात्मक प्रस्तुति में पाते हैं।

 

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"कम्युनिज़्म हमारे लिए कोई अवस्था नहीं है जिसे स्थापित किया जाना है, न वह हमारे लिए आदर्श है जिसके अनुसार यथार्थ को अपने को ढालना होगा। हम वास्तविक आंदोलन को कम्युनिज़्म का नाम देते हैं जो मौजूदा अवस्था को मिटाता है। इस आंदोलन की स्थितियां उन पूर्वाधारों से उत्पन्न होती हैं जो अभी विद्यमान हैं।" (कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, द जर्मन आइडियोलॉजी)

 


बहुतों को कम्युनिज़्म की यह परिभाषा अधूरी लगती है, क्योंकि इसमें कम्युनिज़्म का विस्तृत रूपात्मक विवरण नहीं दिया गया है। पर हम समझते है कि इसमें सब कुछ है जिसके आधार पर ऐसे विवरण तैयार किए जा सकते हैं। परंतु विवरण तो परिभाषा नहीं है, वे केवल ऐतिहासिक स्वरूपों की कहानियां बता सकता है।


 

पहली बात तो यह है कि कम्युनिज़्म शब्द अपने आप में एक सूत्र है जो कि वर्गीय-विभाजित समाजिकता के खिलाफ कम्यून अथवा वर्ग-विहीन सामूहिकता पर आधारित सामाजिकता की पेशकश करता है। पर वह कोई भविष्य में आने वाली अवस्था नहीं है, जिसे स्थापित होना अथवा करना है। वह आदर्श भी नहीं है जिसे कार्यक्रम-बद्ध कर यथार्थ को वहां तक पहुंचाना है।

 


यानी कम्युनिज़्म को आना-लाना नहीं है, वह तो यहीं है। "मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में"। मौजूदा अवस्था को मिटाने के हमारे संघर्ष में, वास्तविक आंदोलन में वह मौजूद है। "खोजी होय तुरत मिलिहों, पल भर की ही तलास में।" वह तो "सब सांसों की स्वांस में" मौजूद है। (कबीरदास)

 


कम्युनिज़्म की स्थितियों क़े पूर्वाधार उसी अस्तित्व का हिस्सा हैं जिसका विद्यमान स्वरूप पूंजीवाद है। और शायद इसीलिए ऊपर उद्धृत कथन में कम्युनिज़्म को वास्तविक आंदोलन कहा गया है जो कि मौजूदा अवस्था को नकारता, "मिटाता" है। कम्युनिज़्म की विशिष्टता इसी में है कि "वह उत्पादन तथा संसर्ग के तमाम पूर्ववर्ती संबंधों के आधार को पलट देता है।" वह सामाजिक पूर्वाधारों को "ऐक्यबद्ध व्यक्तियों" की सत्ता के अधीन लाता है, पूंजीवादी समाज में व्यक्तिकृत व्यक्तियों की भ्रामक सामूहिकता के जगह पर वास्तविक एकता को उजागर करता है। कम्युनिज़्म मौजूद सामाजिक पूर्वाधारों को एकता के आधारों में बदल डालता है। (द जर्मन आइडियोलॉजी) वह व्यवस्थित अवस्थाओं की नकार है।

 


यही सतत नकार वर्ग संघर्ष की निरंतरता है। यह नकार सामाजिक संसर्ग के उन स्वरूपों के खिलाफ उत्पादक शक्तियों की बगावत है जो जीवंत मूर्त और उपयोगी श्रम को पूँजीकृत मृत श्रम के अधीनस्थ रखते हैं - जो क्रिया पर कृत की सत्ता स्थापित करते हैं। हम ज्यादा समय भूल जाते हैं कि मनुष्य और उसके पूर्ववर्ती श्रम के नतीजे ही तो उत्पादक शक्तियाँ हैं। नतीजों की स्वायत्तता, और मानवीय श्रम के अमूर्तिकरण के साथ उसका महज उन नतीजों के उपांग के रूप में सीमित हो जाना, यही पूंजीवादी सामाजिक स्वरूप की विशेषता है। और इस स्वरूप की आलोचना और नकार कम्युनिज़्म है।


 

तमाम विवरणों की तरह कम्युनिज़्म का विवरण भी दिक्कालिक (स्पेसटाइम से सम्बंधित) होता है। दिक्काल के अनुसार कम्युनिज़्म अव्यक्त (अपने न होने में) रहता है अथवा व्यक्त होता है। उसी के अनुसार यह भी तय होता है कि क्या "कम्युनिज़्म मात्र स्थानीय घटना के रूप में ही जीवित रह पाता" है (परंतु "संसर्ग का प्रत्येक विस्तार स्थानीय कम्युनिज़्म को मिटा देगा"), या फिर वह "विश्व-ऐतिहासिक" पटल पर बदलती परिस्थितियों में क्रियान्वित होता है (द जर्मन आइडियोलॉजी)। इसी बदलती दिक्कालिकता के कारण कम्युनिज़्म को किसी एक प्रकार के विवरण में बांधना नामुमकिन है। जब वह कोई अवस्था है ही नहीं तो उसका स्थापित विवरण क्या होगा।

 


नकार सतत क्रिया है। तभी तो मार्क्स ने कम्युनिज़्म को "कार्यवाही" और "क्रियाकलाप" के रूप में चिह्नित किया। हॉलोवे और कई मार्क्सवादी कम्युनिज़्म के इसी प्र-क्रियात्मक पक्ष को उजागर करने के लिए कम्युनिजेशन शब्द का इस्तेमाल करते हैं।

 


दूसरी तरफ, कम्युनिज़्म को अवस्था अथवा सामाजिक चरण मानने वाले उसको एक भिन्न सम्पूर्ण सामाजिक सत्त्व के रूप में समझते हैं जो पूंजीवाद के बाद स्थापित होगा। उनके लिए कम्युनिज़्म सामाजिक संसर्गों का भविष्यकालिक स्थापित नियोजन है। वह कितना ही कल्याणकारी क्यों न हो, उसे सामाजिक क्रियाशीलता और रचनात्मकता के मुक्त प्रवाह को नई सम्पूर्णता की पुनरुत्पादन-प्रक्रिया के वृत्तीय लूप में बांधना होगा।

 


यही वजह है कि व्यवस्था-विरोधी आंदोलनों में चरणवादी कम्युनिस्टों का वर्चस्व श्रमिकों के तमाम तबकों की स्वगतिविधियों पर आधारित मानवीय आत्ममुक्ति के मार्गों को उजागर नहीं होने देता और उन्हें राजकीय जड़वाद के घेरे में बांध कर (गरमपंथी) सुधारवाद की ओर मोड़ देता है। सामाजिक अलगाव, आर्थिक और राजनीतिक के पार्थक्य (the separation between the economic and the political) पर टिकी व्यवस्था को एक नया स्वरूप मिल जाता है। इस पार्थक्य से उत्पन्न राजसत्ता को नई वैधानिकता मिल जाती है। और कम्युनिज़्म भूमिगत ही रहता है।

 


कम्युनिज़्म नाम नहीं है वह क्रिया है, सामाजिक एकता, सहयोग और सहकारिता की प्रक्रिया है, जबकि पूंजीवाद उस सहयोग के अलगाव, उत्पादीकरण और तकनीकीकरण पर आधारित है। इस व्यवस्था के तहत मानवीय क्रियाशीलता महज "पण्यों के विशाल संचय" का साधन हो जाती है। आधुनिक उत्पादन प्रक्रिया में समाजीकरण सतत बढ़ता जाता है परंतु उत्पादन सम्बन्ध और विनिमय प्रणाली इस सामाजिक क्रिया को कृत, पण्य, उसके स्वामित्व और उसके दाम, जो कि "किसी पण्य में मूर्त होनेवाले श्रम का द्रव्य-नाम होता है" (कार्ल मार्क्स पूंजी भाग 1), के प्रश्नोँ में ओझल कर देते हैं। समाजीकरण और "मूर्तिकरण" (फेटिशाइज़ेशन) के इसी अन्तर्विरोध को वर्ग संघर्ष के रूप में एंगेल्स सूत्रबद्ध करते हैं, जब वह कहते हैं कि "समाजीकृत उत्पादन तथा पूँजीवादी हस्तगतकरण-व्यवस्था की असंगति सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग के विरोध के रूप में हुई।" (एंगेल्स, समाजवाद: काल्पनिक तथा वैज्ञानिक)

 


कम्युनिज़्म इस सामाजिक क्रियाशीलता के पूंजीवादी हस्तगतकरण से मुक्ति के लिए होती सतत दैनिक संघर्ष की क्रिया है। वह नामों, पण्यों और कृतों के जड़-बंधन से मुक्त होने की लड़ाई है। अगर कम्युनिज़्म सामूहिक समाजिक प्र-क्रिया है और पूँजीवाद उस ऊर्जा का उत्पादिकरण कर उसे पण्य, द्रव्य, मूल्य और राज्य के स्वरूपों में बाँधता है, तो कम्युनिज़्म का विस्तार पूँजीवाद के अंदर, उसके विरुद्ध, और उसके आगे निकलने का संघर्ष है — उसकी नकार है।

 


कम्युनिज़्म पूँजीवादी स्वरुपों की सैद्धांतिक-व्यवहारिक आलोचना द्वारा मानवीय क्रिया को उन स्वरुपों से मुक्त कर उनका सत्य उजागर करता है। उन स्वरुपों की जड़ता को तोड़कर उन प्रक्रियाओं को सामने लाता है जिनसे वे निर्मित होते हैं। ये प्रक्रियाएँ अपने आप में अंतर्विरोध-पूर्ण होती हैं। यह अंतर्विरोध श्रम और पूँजी के बीच, मूर्त श्रम और उसके अमूर्तिकरण के बीच, जीवंत और मृत श्रम के बीच होता है। ये आंतरिक संघर्ष तमाम पूंजीवादी सत्त्वों के भावात्मक अथवा प्रक्रियात्मक स्वरूपों को सामने लाता है। जो व्यवस्था में स्थापित कर्ता, संज्ञा अथवा नामरूप हैं उनके गुणों का ज्ञान उनके नाम से नहीं होता, उनके कर्म से भी नहीं होता, बल्कि जिन प्रक्रियाओं के द्वारा वे स्थापित होते हैं उनसे होता है।

 

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लगभग ढाई हजार साल पहले शाकटायन और यास्काचार्य जैसे नैरुक्तों ने वैयाकरणों के साथ भाषा के उद्भव को लेकर बहस में, विशेषकर क्रियापद और नामपद के सम्बंध के संदर्भ में, इसी बात को अपने ढंग से रखा था। वे कहते हैं कि भावप्रधानमाख्यातम् सत्त्वप्रधानानि नामानि। तद्यत्रोभे भावप्रधाने भवत: पूर्वापरिभूतं भावमाख्यातेनाचश्टे। अर्थात, आख्यात (क्रियापद) में कृत्य प्रधान होता है, जबकि नाम या संज्ञा में कृत। गतिमान अथवा चल रहे कार्य (becoming) को यहां भाव कहा गया है, और सत्त्व का अर्थ है पूरा किया हुआ कार्य (being)। आगे, जब दोनों साथ आते हैं तब भी भाव ही प्रधान रहता है, और चल रहे कार्य में पौर्वापर्यं यानी कार्य के क्रमिक चरणों का ज्ञान होता है।

 


यास्काचार्य आगे यहां तक बोल देते हैं (जो हॉलोवे के मत के करीब पहुंचता है) कि नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च -- अर्थात, शाकटायन और अन्य नैरुक्तों के अनुसार सभी नाम आख्यात (क्रियापद) से पैदा हुए हैं। वैयाकरणों ने इस मत का पुरजोर विरोध किया क्योंकि वह व्याकरण में अराजकता पैदा करता है, शब्दों और वाक्यों में अनियमितताओं और अर्थ के सिलसिले में अनिश्चितताओं को जन्म देता है। परंतु नैरुक्तों का जवाब निस्संदेह क्रांतिकारी था: "तुम्हारी चाहत कि सभी नाम नियमानुसार निर्मित हों और सुगम हों कभी पूर्ण नहीं होगी; हो ही सकता है उस भाषा को बोलने वालों की नासमझी अथवा सहूलियत या फिर सनक के ही कारण भाषा भ्रष्ट हो जाए, तब भी वैयाकरणों और नैरुक्तों का काम है उन भ्रष्टताओं का हिसाब करना।" (वैजनाथ काशीनाथ राजवाडे, यास्काचार्यप्रणितं निरुक्तम्, प्रथमो भाग:)

 


और उम्मीद भी तो यहीं है!

 

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“पिछली सारी क्रांतियों में करने का तरीका हमेशा अपरिवर्तित रहा और सवाल केवल इस करने के विभिन्न बँटवारे का था, दूसरे व्यक्तियों के लिए श्रम का नया बँटवारा, जबकि साम्यवादी क्रान्ति अबतक विद्यमान करने के तरीके के खिलाफ उन्मुख है, श्रम को नकारती है, और सभी वर्गों के शासन के साथ-साथ स्वयं उन वर्गों को उन्मूलित करती है, क्योंकि इसे वह वर्ग संपन्न करता है जिसे समाज में अब एक वर्ग की तरह देखा ही नहीं जाता, जिसे वर्ग के रूप में पहचाना ही नहीं जाता, और जो स्वयं विद्यमान समाज के भीतर सभी वर्गों, राष्ट्रीयताओं आदि के विघटन की अभिव्यक्ति है.” (जोर मूल में, कार्लमार्क्सऔरफ्रेडरिकएंगेल्स, कलेक्टेड वर्क्स, 5)

 


अनुवादक भी सबसे पहले एक पाठक है. पाठ से उसकी मुठभेड़ सामूहिक खोज की प्रक्रिया में हुई है. पाठ और पाठक दोनों एक दूसरे को खींचते हैं. पाठ अपने अनागत पाठकों के बिना अधूरा है, पाठक पाठ के बिना अपनी खोज में निःसंग. आखिर वह क्या है जो पाठक की अपनी फैंटेसी को इस कदर उद्बुद्ध करती है कि वह अपनी भाषा में उसे पुनर्सृजित करने को तड़प उठता है? अनुवाद की प्रेरणा पाठक के भीतरी गहरे अँधेरे से उठती है जो उसके ‘मैं हूँ’ के भीतर स्थित ‘हम हैं’ की ताकत है (अर्न्स्ट ब्लॉक, ए फिलोसफी ऑफ़ द फ्यूचर). निजी पहचाने विश्व की व्यक्तिवादी अपूर्णता और उसकी रिक्तता में सामाजिक का अदम्य और उद्दाम आवेग है. ‘हम’ अनुवादक की लालसा वस्तु बनती जाती है. वह भाषा के अतिरेक को पाने की चाह में, स्वयं की अनुपस्थिति और अभाव के वस्तुगत रूपांतरण के लिए अनुवाद कर्म में सक्रिय होता है. अपनी भाषा में अन्य किसी भाषा के अतिरेक को रूप देना अपनी भाषा के भीतर एक कार्यवाही है. उसे लगता है कि यह तो उसकी अपनी ‘अब तक न पायी गयी अभिव्यक्ति’ (मुक्तिबोध) है. उसके अपने जीवन-निष्कर्ष, संशय और आलोचनाएँ, उसकी अपनी प्रेरणाएं नए आलोक में पुनर्गठित होने लगती है. पढ़ने-लिखने में उसका रूपांतरण होता जाता है. भूल-गलतियों की आत्मालोचना तेज होती जाती है. सोच की जड़ता भंग होती है. वर्तमान का धुंध छंटता जाता है. इतिहास की परतों में दबा दिए गए भाव-अनुभवों का नया सोता फूट पड़ता है. भाषा और फैंटेसी में गुथम्गुत्था होने लगती है.

 


जॉन हॉलवे की किताब का अनुवाद सहज नहीं है. कारण कि यह कोई अकादमिक भाषा में लिखी किताब नहीं वरन एक किस्म की लम्बी गद्यात्मक कविता है. टेक्स्ट के दोनों सिरे खुले हैं. एक निर्माणाधीन प्रक्रिया. भाषा और भाषा में संकल्पित संवेदन-ज्ञानात्मक व्यवस्था या व्याकरण के विरुद्ध भाषा की स्वछंदता का आग्रह है. उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘क्रियाकाल’ (डूइंग टाइम) की लय जो घड़ी की सुईयों के भीतर बद्ध होकर भी उसके विरुद्ध और परे निर्माणाधीन है. व्याकरणविरोध(एंटी ग्रामर) की सामूहिक कोशिश है. पूँजी के अर्थतंत्र (आर्डर ऑफ़ मीनिंग) के खिलाफ भाषा में संपन्न एक कार्यवाही. इसका रूप खुला है. संवाद इसके निर्माण का सहधर्मी है. यह ‘साथ-साथ चलते रास्ता बनाना है’. ‘पूँजी-1’ के तेतीस अध्यायों की तरह. पूँजीवादविरोधी संघर्षों में आलोचनाशील मार्क्सवाद- खुला मार्क्सवाद.

 


क्रियाकाल की लय का अनुवाद कैसे संभव है? ज़पतिस्ता और अन्य लातिन अमरीकी और विश्वभर में पूँजीवाद विरोधी संघर्षों से बनती इसकी भाषा का एक इतिहासबद्ध चरित्र है. यह इसका बद्ध चरित्र है जो क्रियाकाल को व्याकरणबद्ध होने से रोकता है. यह उसका संवेदनशील विशिष्ट काल है जो वैश्विक पूँजीवाद के भीतर है पर उसके खिलाफ और उससे परे सक्रिय है. विनिमय सम्बन्धों के भीतर, अस्मिता या पूर्णता के भीतर असंगति की तरह है क्रियाकाल की लय. इसकी प्रकृति निषेधात्मक है. अनुनाद या अनहद नाद जैसी. एक वास्तविक यूटोपिया रचने वाली- ‘आगामी कल नहीं/ आगत वह आज है’ (मुक्तिबोध). संगति अमूर्त श्रमकाल का देह धारण करना है. घंटों, मिनटों की संगत इकाइयों जैसी. असंगत विशिष्ट की एकांतिकता है- पूर्णता या अस्मिता या वास्तविक अमूर्तन की सार्वभौमिकता के खिलाफ. ‘कई दुनियाओं से बनती दुनिया’.

 


अनुनाद की तरह अनुवाद अगर व्याकरणिक समतुल्यता को चुनौती देने में है तो निश्चित रूप से यह अनुवाद स्वयं बंगला भाषा की जड़ लेनिनवादी धारा के लिए असंगत काम होगा. असंगत और निंदनीय दोनों. क्रियाकाल के अनुवाद की दिक्कत दरअस्ल आंदोलनों के अनुवाद की दिक्कत है. समतुल्यता की आलोचना ही हमें ‘अनागत’ (नॉट एट) की तरह उपस्थित क्रियाकाल की निषेधात्मकता तक लिए चलती है. परन्तु वास्तविक विकासक्रम ऐसा नहीं है. एक बार जब सापेक्षिक बेशी मूल्य उत्पादन केन्द्रीय हो जाता है या कहें कि स्वचालित मशीनों की विश्वव्यवस्था के आगमन के साथ सामूहिक देहों के नकारात्मक क्रियाकलापों को अर्थात उनके सृजनात्मक हस्तक्षेपों को या कहें कि क्रियाकाल की लय को निरंतर मूल्य-रूप की मूर्त मध्यस्थताओं के खिलाफ वस्तुकरण की लड़ाई लड़नी पड़ती है. सामूहिक देहों से सामूहिक बुद्धि का पृथक्करण ऑटोमेटेड सामान्य बुद्धि (जनरल intllect, मार्क्स) के रूप में आत्मक्रियाओं को जड़ और पराई शक्ति में बदल देता है. सामान्य बुद्धि की यह वास्तविक मध्यस्थता अकादमीकरण और ‘कीर्ति व्यवसाय’ के रूप में भी सामने है. अनुवाद कर्म ‘मनोद्योग’ (एन्जेंस्बर्गेर, द इंडस्ट्रियलाइजेसन ऑफ़ माइंड) के भीतर निमज्जित है. यह उद्योग आपकी फैंटेसी का, कल्पना और यूटोपिया का पण्यीकरण करता है. क्रियाकाल को सामूहिक देहों की लय से अलग कर ‘खाली सामांगी समय’ में बद्ध किया जाता है. इस तरह यूटोपिया अपनी अंतर्भूत दैहिक नैसर्गिकता से विलग हो कर आन्दोलन सम्बन्धी साहित्यों के बाजार में खपने लगती है.

 


थीसिस फॉर्म में सामूहिक पड़ताल का प्रस्तुतिकरण आख्यानपरक एकरेखीयता के बंधनों को भंग करती है. हर थीसिस अपने आप में जो कुछ कहती या आलोचित करती है उसकी अपनी विशिष्टता है- खंड जो मिलकर कोई पूर्णता नहीं गढ़ते बल्कि ऐसी किसी भी अर्थगत पूर्णता को खंडित करते चलते  हैं. इसका चरित्र नक्षत्रपुंजों की तरह है. यह विच्छेद को रूपायित करता है. मार्क्स की ‘थीसिस ऑन फायरबाख’ में ‘क्रांतिकारी या व्यवहारिक-आलोचनात्मक कार्यकलाप’ आलोचना की अटकलपंथी या विचारधारापरक धाराओं से अपने विच्छेद के रूपायन का प्रयास करती है. इस तरह आलोचना हमसे बाहर की वस्तुकृत और पराई और हमारे ऊपर शासन करने वाली दुनिया को रचनेवाले हमारे ‘संवेदनशील/ऐन्द्रीय मानवीय क्रियाकलापों’ को, विच्छेद और बदलाव के आत्मगत पक्ष को, स्पष्ट करती है. ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना’ सामाजिक संसर्ग के उन रूपों की आलोचना बन जाती है जो समाज के फेटिश चरित्र से बन रही हैं. यह चरित्र निजबद्ध कर्ता की तरह हमें पुनुरुत्पादित करता है. नागरिक समाज के ‘विलग और निजबद्ध व्यक्तियों’ से बनती सामूहिकता ‘प्रजातिगत’ समानता या फॉर्मल एकता को संगठन का आधार बनाती है. उनकी आलोचना उत्पादन की विशिष्ट ऐतिहासिक समाज प्रकृति के शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों को सार की तरह नहीं देखती. मार्क्स ने दिखाया कि फायरबाख का चिंतनपरक भौतिकवाद प्रत्येक निजबद्ध व्यक्ति के भीतर स्थित ‘प्रजाति’ की सार्वभौमिकता और ‘मानव सार’ पाना चाहता है जबकि सार तो उत्पादन के सामाजिक सम्बन्ध हैं. पूँजीवादी सम्बन्धों में मानव वास्तव में अमूर्त है (अल्थुसर, फॉर मार्क्स). सामाजिक वैरसंघर्ष के सम्बन्धों का यहाँ मानवीकरण होता है- हम महज ‘चारित्रिक नकाब’ रह जाते हैं.

 


समाजविज्ञान और मानविकी अनुशासनों में कृति या कृत की ताकत की आलोचना कर्ता/विषयी की प्रति-ताकत से मोहाविष्ट है. वस्तु की आलोचना वास्तुकार के चरित्र को महिमामंडित करने लगती है. मजदूर ‘वर्ग’ का महिमामंडन उन्हें एक स्थिर पहचान में सीमित करता है. श्रम के महिमामंडन की प्रक्रिया में रचनाप्रक्रिया ही जड़ीभूत होती है. श्रम के रूप में विशिष्ट ऐतिहासिक संवेदनशील मानव क्रियाकलाप की सार्थक पहचान श्रमिक होने को वरदान बनाती है. रचनाप्रक्रिया की पहचान और अस्मिता बनती चलती है. संगतिबद्ध गतियों का जड़पुंज बनता है. अकादमिक अनुशासनों में इसे व्यवस्थित किया जाता है. आलोचना का अकदमीकरण होता जाता है. आचार्य क्षितिमोहन सेन ने बहुत पहले औपनिवेशिक ज्ञान-मीमांसा और अकाद्मीकरण की प्रक्रियाओं को उजागर करने के क्रम में ‘कर्ताभजा’ सम्प्रदाय का ज़िक्र किया था. और यह अकारण नहीं था. स्वयं अपनी भाषा की परम्परा में उन्हें ‘’कर्ताभजा’ सम्प्रदाय की विचारधारात्मक स्वीकृति और ताकत का अंदाजा था. अमूर्त मनुष्यता ही सम्प्रदाय की मूर्त मनुष्यता में रूपांतरित होती है. ताकत बनती है. भक्त और भक्त का जीवनचरित भक्ति सम्प्रदायों को संगठित ताकत में बदल देती है. भक्ति व्यक्तिपूजक ‘कर्ताभजा’ सम्प्रदाय की आवेगमयी ताकत है जिसका जन्म सामाजिक व्यक्तित्व की सामूहिकता को दबा कर होता है. मार्क्स-लेनिन की भक्ति कोई अनोखी बात नहीं!

 


क्रियाकाल का अनुवाद स्वयं अनुवाद की असंकल्पता को अभिव्यक्त करता है. यह असंकल्पता आंदोलनों के भीतर लेनिनपंथी पार्टी जड़ता और अकादमिक/अवसरवादी मार्क्सवाद से वास्तविक विच्छेद में रूपायित होती है. परम्परा में विच्छेद की ऐसी ही स्मृति चारू मजुमदार के ऐतिहासिक आठ दस्तावेजों में भी झलक उठती है. “इलाका दखल  केवल एक फौरी कार्यनीति नहीं है बल्कि नए क्रांतिकारी व्यवहार का सिद्धांत भी है. इलाका दखलनए सामाजिक सम्बन्धों की प्रस्तावना है- एक कम्युनिस्ट प्रस्तावना. आर्थिक घेराबंदी और नए सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण जैसी कार्यनीतिक ज़िम्मेदारी के मूल में वह अंतर्दृष्टि है जहाँ सामाजिक आत्मनिर्णय की प्रक्रिया ही राजनीति की स्वायत्ताका आधार बनती है. शास्त्रीय भाषा में कहें तो सर्वहारा का अधिनायकत्व इस सामाजिक आत्मनिर्णय की प्रक्रिया से अभिन्न है. राज्य-सत्ता वास्तविक सामाजिक सम्बन्धों के बाहर कहीं नहीं है. इलाका दखलसामाजिक शक्ति सम्बन्धों में अन्तर्निहित श्रेणीकरण की प्रक्रियाओं मसलन प्रतिनिधित्व या पहचान की प्रक्रियाओं या संसदीय लोकतंत्र की प्रक्रियाओं की वास्तविक आलोचना करती है. इस प्रकार इलाका दखलआर्थिक और राजनीतिक के अलगाव की प्रक्रियाओं के ख़िलाफ़ और उससे परे सामाजिक आत्मनिर्णय की कम्युनिस्ट कार्यनीति है. अवसरवादी मार्क्सवाद इस अलगाव को यथार्थ और पहले से उपस्थित मान कर राज्य-सत्ता और निर्णय के सापेक्ष स्वायत्ता की व्याख्या करता है. जबकि विद्रोह, हड़ताल या निषेध के आरंभिक क्षणों में यह अलगाव स्थगित होता है. दरअसल इस सच को दबा कर ही अलगाव संभव है. दिया गया यथार्थ कैसे आकार ग्रहण करता है इस पर उनकी दृष्टि नहीं जाती. इलाका दखलनिषेध का उज्ज्वल पक्ष है और हमारे लिए पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक भी. राज्य-सत्ता को सम्पूर्ण सामाजिक सम्बन्धों की, सम्बन्धों की पूर्णता की अभिव्यक्ति करार देने से इलाका दखलया मुक्त क्षेत्रअनिवार्यतः राज्य-सत्ता केन्द्रित कार्यनीति में सीमित हो गया. राज्य-सत्ता की बागडोर जिस पैसे और मूल्य या अमूर्त श्रम के हाथों है वह नज़रों से ओझल हो गया. सामाजिक सम्बन्धों के सचेत और क्रांतिकारी नवनिर्माण की प्रक्रिया को दबा कर केवल राज्य-सत्ता पर कब्जा का उद्देश्य इलाका दखलकी कार्यनीति को न केवल सीमित करता है बल्कि मजदूर वर्ग की घृणा, हिंसा और शहादत की भावनाओं को रह्स्यीकृत भी करता है. हमारे लिए इलाकाकेवल क्षेत्र, स्पेस या भू-भाग नहीं बल्कि अवकाशया समयभी है. इलाका दखलअमूर्त समय की धारा को रोकने के लिए लगाया गया बेंजामिन का आपातकालीन ब्रेक और सामूहिक करने के अपने अनंत समय का निर्माण दोनों है.” (CityNotes Collective/सहचरhttps://citynotesinquiry.wordpress.com/about-us/)

 

‘विजेताओं की परम्परा’ से विच्छेद ‘एक वास्तविक आन्दोलन’ है. निश्चित ही यह अनुवाद उसमे अपना योग देना चाहता है, अपने अनागत पाठकों के साथ. अभी इसी वक़्त जब हम इसे पढ़ रहे होंगे.

 

प्रत्युष चन्द्र

मार्तण्ड प्रगल्भ

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