बुधियारों के लिए, बुड़बकों की ओर से....
क्या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र “बुड़बक” हैं ?
ये कैसी उलटबांसी है कि
- जड़ होना बुधियार होना है और अपनी पहचान को तोड़कर एक साथ आने वाले एवं वोट की राजनीति को अपने चक्काजाम से प्रश्नांकित करने वाले छात्र बुड़बक हैं.
- मृत्योंमुख जीवन के पक्ष में होना बुधियार होना है और जीवनोंमुख मृत्यु के पक्ष में होना बुड़बक होना है.
- डेट और समय बता कर, प्रशासन से अनुमति ले कर, कानूनन हड़ताल या बंदी तो बुधियारी है लेकिन बिना बताये, बिना हो हल्ला मचाये, ‘गैरकानूनी’ चक्काजाम करना बुड़बकी है.
- सरकार बदलने में खुद अपनी संभावना देखना बुधियारी है पर चे की तरह ‘असम्भव की माँग’ करना बुड़बकी, रेलवे भर्ती का रोजगार अभियान चलाना बुधियारी है और ‘एक खेत नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेगे’ कहना बुड़बकी है.
- सगुण होना, मेरीटोरियस होना, गुणों और जाति से चिपके रहना, ग्रुप डी आदि को एसएससी या बीपीएससी की तैयारी करने वालों से हेय देखना बुधियारी है जबकि निर्गुण होना, गुणों से परे जाने की कोशिश करना, जाति तोड़ना, बेरोजगारों के अलग-अलग खांचों को प्रश्नांकित करना बुड़बकी है.
- सामंजस्य बनाना, सत्ता के लिए जोड़तोड़ और घृणित समझौते करना, राजनीतिक कैरियर बनाना, पैसे की ताकत से संगत और तालबद्ध होना बुधियारी है और संघर्ष करना, समझौते और सामंजस्य को असंभव करार देना, पैसे की दुनिया में असंगत और बेताल होना बुड़बकी है.
- अपने घरों, ऑफिसों और कारखानों में जी तोड़ लगे रहना, सबकुछ सहना और चुप रहना, समय की टिक टिक में भविष्य का अँधेरा टपकते देखना बुधियारी है जबकि घरों, ऑफिसों और कारखानों में समय की टिक टिक रोक देना और एक नयी दुनिया गढ़ने की कल्पनाओं में सक्रिय होना बुड़बकी है.
बुड़बक
और बुधियार का यह विभाजन कैसा है?
- हमारा समाज लगातार किसी को बुड़बक पहचान कर खुद को बुधियार साबित करने की प्रथा से बनता समाज है.
- यह कई स्तरों पर मानसिक और शारीरिक श्रम विभाजन से बनती-बंधती मजदूरी-प्रथा वाला समाज है. जिसे पूंजीवादी-जाति व्यवस्था भी कह सकते हैं.
- सामंती-जाति व्यवस्था (feudal division of labour) जहाँ जन्म और जमीन से बंधी होती थी वहीं पूंजीवादी-जाति व्यवस्था (capitalist division of labour) नोट और वोट से बनती-बंधती चलती है.
- यहाँ व्यक्ति या समूह एक-दूसरे के समक्ष खुद को कभी ना ख़त्म होने वाली होड़ (कम्पटीशन) में पाते हैं, जहाँ सामने वाले को दबा कर ही खुद डूबने से बचा जा सकता है. किसी को बुड़बक पहचान कर ही खुद को बुधियार साबित किया जा सकता है. पूंजीवादी-जाति व्यवस्था इसी मामले में पुरानी किसी भी जाति व्यवस्था से गुणात्मक रूप से भिन्न है.
- मजदूरी-प्रथा वाले समाज में कम्पटीशन/होड़ वर्ग-युद्ध के छुपने-प्रकट होने का इतिहास विशिष्ट तरीका है. ऐसी होड़ को ही हॉब्स ‘प्रत्येक के विरुद्ध प्रत्येक का युद्ध’ बताता था.
- यहाँ मजदूरी-प्रथा के खिलाफ हमारा होना सामाजिक-आर्थिक हिंसा के सहारे कम्पटीशन में बदल जाता है.
- हम
सरकारी या परमानेंट नौकरियों की तरफ क्यूँ भागते हैं ? क्या इसलिए कि हमें काम करने में बड़ा मजा आता है? या
इसलिए कि हम काम-दाम के इस घनचक्कर से परमानेंट छुट्टी चाहते हैं? हम मजदूरी-प्रथा नहीं चाहते. लेकिन हमारी यह चाह सरकारी या परमानेंट नौकरी
प्राप्त करने की भयंकर होड़ के रूप में सामने आती है. सरकारी या परमानेंट जॉब वाले
ठेका-मजदूरों को बुडबक समझने लगते हैं. जैसे SSC वाले ग्रुप
डी वाले को बुडबक समझते हैं. UPSC वाले SSC वालों को बुड़बक समझते हैं. रोजगार वाले बेरोजगारों को बुड़बक समझते हैं. और
राजनीतिक पार्टी वाले मजदूरों को बुड़बक समझते हैं.
- बेरोजगारों को क्या इसलिए बुड़बक समझा जाता है कि वो काम नहीं करते या इसलिए कि उनके काम का दाम नहीं मिलता? उनसे बेगारी कराया जाता है.
- क्या बेरोजगारी और बेरोजगारों की फ़ौज का डर दिखाकर रोजगार वालों से ज्यादा काम नहीं कराया जाता? क्या इससे कंपनियां अतिरिक्त मुनाफा नहीं कमाती?
- आखिर फेसबुक, व्हाट्सप, यूटूब, ट्विटर, इनस्टाग्राम, टिक-टाक आदि का अरबों-खरबों का धंधा कौन चला रहा? क्या ये बेरोजगार चौबीसों घंटे और साल के ३६५ दिन इन कंपनियों की बेगारी नहीं खट रहे ? वो कौन लोग हैं जो कहते हैं कि हम मेहनत नहीं करते इसलिए सफल नहीं होते? वो कौन लोग हैं जो रोजगार दिलाने के नाम पर बेरोजगारों की बेगारी को वैध बनाते हैं? क्या चुनावी पार्टियों का धंधा हम बेरोजगार ही नहीं चला रहे?
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