'सनद' के साथियों से...




आज के समय में, जब संवाद या बातचीत बहुत मुश्किल जान पड़ती है, ऐसे में 'सनद' (पटना विश्वविद्यालय में सक्रिय एक सांस्कृतिक मंच) की ओर से परिचर्चा के लिए पहल करना अच्छी बात है । हमारे लिए तो और भी खुशी की बात है कि यह परिचर्चा हिंदी साहित्य के इर्दगिर्द हो रही है (चूँकि हम हिंदी साहित्य के छात्र हैं) ।विश्वविद्यालयों में साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने की निश्चित प्रक्रिया है, जिसमें साहित्य का लगातार अकादमीकरण किया जाता रहा है। ऐसा हमें इसलिए लगता है क्योंकि अभी के समय में विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में या कक्षाओं के बाहर संवाद या परिचर्चा जैसी कोई चीज देखने को नहीं मिलती है। विश्वविद्यालयों ने साहित्य को केवल परीक्षाओं के प्रश्न-उत्तर और जड़ हो चुकी पुरानी मान्यताओं को ढोने भर में समेट दिया है। 

संवाद करने का जो सीधा मतलब हमें समझ में आता है वह यह है कि पूर्व निर्धारित स्थितियों को हम अस्वीकार करने की यथासंभव कोशिश करेंगे। संवाद को पहले से दिए गए रूप या मापदंड में बांधना रूप की ताकत से वशीभूत होना है। 'यहां अंतर्वस्तु रूप के पीछे पीछे चलती है, रूप की चेरी है, यहाँ नारे अंतर्वस्तु से आगे निकल जाते हैं'। संवाद को विभाग की सीमाओं में कैद करना संवाद को एकतरफा करना है। 

हमने अनुगूँज नाम से एक ब्लॉग बनाने की कोशिश की है जिसका उद्देश्य 'विद्यमान की निर्मम आलोचना' है। ब्लॉग की आरंभिक रूपरेखा कुछ इस प्रकार है:-

हम बिहार के विभिन्न इलाकों से आने वाले और पटना विश्वविद्यालय में पढ़ने-पढ़ाने का काम करने वाले कुछ विद्यार्थियों द्वारा आपसी खुले संवाद के एक जरिये की तरह ब्लॉग बनाने की कोशिश कर रहे है। 

हमलोग पिछले कुछ महीनों से चलते-ठहरते आपस में कुछ बात-चीत करते रहे हैं। इस बात-चीत में एक बात यह निकल कर आई है कि हम आपसी-मेलजोल और बातचीत के क्रम में पहचान की आलोचना करेंगे। हम अपनी-अपनी पहचानों के साथ समाज में हैं। और हम जानते हैं कि पहचानें शोषण का कारण बनती हैं। शोषण अपनी विशिष्ट पहचान को बनाये रखने में है। मालिक-मजूर, औरत-मर्द, अवर्ण-सवर्ण, उत्पीड़ित-उत्पीड़क आदि भेद पहचानों के संघर्ष और उसके शत्रुतापूर्ण चरित्र की ओर इशारा करते हैं। पहचानों की आलोचना का अर्थ है कि हम दलित हैं, औरत हैं, मुसलमान है, काले हैं और इसलिए सवर्णों के, मर्दों के, हिंदूओं के, गोरों के ख़िलाफ़ हैं लेकिन केवल इतना ही नहीं है, हम अपने दलित होने, औरत होने, मुसलमान या काले होने के ख़िलाफ़ भी हैं। हम कमजोर होने, शोषित या प्रताड़ित किये जाने के ख़िलाफ़ हैं। हम बार-बार दमित अस्मिताओं की तरह खुद को बनाये रखने के ख़िलाफ़ हैं। हम शोषण और उसके पहचान केन्द्रित मकेनिज्म को रोकना चाहते हैं। इसलिए हमारे संवाद में कोई बाहरी नहीं है और न ही संवाद के बाहर से कोई नियम हमें चालित कर सकता है। हम पूर्व-निर्धारित धारणाओं या विचारधाराओं या राष्ट्रीयताओं या क्षेत्रीयताओं या जातियों की जड़ हो चुकी पहचानों के साथ आते जरूर हैं लेकिन उनको हम संवाद बंद होने की शर्त नहीं बनने देना चाहते हैं।  

बात-चीत के दौरान कुछ रचनाएं भी हमारे साथ-साथ रही आई हैं। प्रेमचंद की कहानियाँ और उनके लेख, मुक्तिबोध की कवितायेँ और लेख, गोरख पांडेय और विद्रोही जी की कवितायें, माओ का हुनान सम्मलेन में बुद्धिजीवियों और कलाकरों को दिया गया व्यक्तव्य, सहजानंद सरस्वती का लेख ‘महारुद्र का महातांडव’, मार्क्स और एंगेल्स द्वारा कम्युनिस्ट घोषणापत्र के विभिन्न प्रकाशनों के लिए लिखी गयी भूमिकाएं आदि टेक्स्ट अलग-अलग मौकों पर चर्चा के केंद्र में आये हैं और संवाद की आतंरिक प्रक्रिया में हम अन्य रचनाओं पर चर्चा जारी रखने की कोशिश करेंगे। हम अभी ज्यादातर हिंदी विभाग से जुड़े छात्र-छ्त्राएँ हैं। हिंदी साहित्य पढ़ने वाले लोगों के बंद घेरे से बाहर अन्य विभागों के लोग जब संवाद में शामिल होंगे तो हमारा संवाद और भी गर्भित होगा। बाँध अरअरा के टूटेंगे। 

ब्लॉग पर सामूहिक चर्चा से निकले आलेख, पर्चे, आलोचनाएँ, पॉडकास्ट आदि लगाए जायेंगे। रचनात्मक साहित्य और ठेठ राजनीतिक आलोचना एक दूसरे के पूरक हैं। रूप का अनुशासन यथासंभव न मानने की चेष्टा होगी। रूप की तानाशाही के विरुद्ध अंतर्वस्तु की अनुगूंज के लिए एक जरिया होने में जो मुख्य बात है वह है ब्लॉग के सामूहिक उत्पादन के तरीके की हम अपनी आपसी बातचीत में आत्मालोचना कितनी और कैसे करते हैं। 

पिछले दिनों जो 'सनद' का पर्चा देखने को मिला उस पर हम कुछ कहना चाहते हैं। 'सनद' ने अपने पर्चे में निष्पक्ष होकर बात रखने की बात की है, तो क्या सनद के निष्पक्ष होने का मतलब यह है कि ना तो वह 'गंगी' के साथ है ना 'ठाकुर' (प्रेमचंद की कहानी 'ठाकुर का कुआँ' के पात्र) के साथ ना तो वह पूंजीवाद के साथ हैं ना सर्वहारा के साथ ना तो वह शोषित के साथ है ना शोषक के साथ। 'सनद' के निष्पक्ष होने का क्या अर्थ है? निष्पक्षता के प्रश्न पर हमें 'बल्ली सिंह चीमा' की पंक्तियाँ याद आती है-

"तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो 

आदमी के पक्ष में हो या की आदमखोर हो "

या मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो -

"पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?"

'सनद' जब निष्पक्षता की बात कर रहा है तो क्या वह रूप की तानाशाही को ही स्थापित नहीं कर रहा है? और उनके सांस्कृतिक संगठन का रूप क्या साहित्य और संस्कृति कर्म को दुबारा विश्वविद्यालय के ढांचे में ही फिट करने की कोशिश नहीं है? 

'सनद' के द्वारा पहला कार्यक्रम कवि रामाशंकर यादव 'विद्रोही' पर पटना कॉलेज में आयोजित हुआ था उसके बाद उनकी परिचर्चा रीतिकालीन कवि 'भूषण' पर हुई, हम जानना चाहते हैं कि सनद के विद्रोही से भूषण तक आने की अंतर्यात्रा कैसी है। अगर सनद इन प्रश्नों पर बात करने के लिए खुला संवाद रखता है तो हम इसमें शामिल होना चाहेंगे और बातें और साफ होंगी। इन सब बातों के बीच समस्या का विषय यह है कि -

"मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में 

सभी मानव 

सुखी, सुंदर व शोषण-मुक्त कब होंगे?"



                                                                                                                             अनुगूँज

                                                                                                          anugunjj.blogspot.com

                                                                                                            anugunjj@gmail.com

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