हमारे बारे में

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हम बिहार के विभिन्न इलाकों से आने वाले और पटना विश्वविद्यालय में पढ़ने-पढ़ाने का काम करने वाले कुछ विद्यार्थियों द्वारा आपसी खुले संवाद के एक जरिये की तरह ब्लॉग बनाने की कोशिश कर रहे है। 

हमलोग पिछले कुछ महीनों से चलते-ठहरते आपस में कुछ बात-चीत करते रहे हैं। इस बात-चीत में एक बात यह निकल कर आई है कि हम आपसी-मेलजोल और बातचीत के क्रम में पहचान की आलोचना करेंगे। हम अपनी-अपनी पहचानों के साथ समाज में हैं। और हम जानते हैं कि पहचानें शोषण का कारण बनती हैं। शोषण अपनी विशिष्ट पहचान को बनाये रखने में है। मालिक-मजूर, औरत-मर्द, अवर्ण-सवर्ण, उत्पीडित-उत्पीड़क आदि भेद पहचानों के संघर्ष और उसके शत्रुतापूर्ण चरित्र की ओर इशारा करते हैं। पहचानों की आलोचना का अर्थ है कि हम दलित हैं, औरत हैं, मुसलमान है, काले हैं और इसलिए सवर्णों के, मर्दों के, हिंदूओं के, गोरों के ख़िलाफ़ हैं लेकिन केवल इतना ही नहीं है, हम अपने दलित होने, औरत होने, मुसलमान या काले होने के ख़िलाफ़ भी हैं। हम कमजोर होने, शोषित या प्रताड़ित किये जाने के ख़िलाफ़ हैं। हम बार-बार दमित अस्मिताओं की तरह खुद को बनाये रखने के ख़िलाफ़ हैं। हम शोषण और उसके पहचान केन्द्रित मकेनिज्म को रोकना चाहते हैं। इसलिए हमारे संवाद में कोई बाहरी नहीं है और न ही संवाद के बाहर से कोई नियम हमें चालित कर सकता है। हम पूर्व-निर्धारित धारणाओं या विचारधाराओं या राष्ट्रीयताओं या क्षेत्रीयताओं या जातियों की जड़ हो चुकी पहचानों के साथ आते जरूर हैं लेकिन उनको हम संवाद बंद होने की शर्त नहीं बनने देना चाहते हैं।  

बात-चीत के दौरान कुछ रचनाएं भी हमारे साथ-साथ रही आई हैं। प्रेमचंद की कहानियाँ और उनके लेख, मुक्तिबोध की कवितायेँ और लेख, गोरख पांडेय और विद्रोही जी की कवितायें, माओ का हुनान सम्मलेन में बुद्धिजीवियों और कलाकरों को दिया गया व्यक्तव्य, सहजानंद सरस्वती का लेख ‘महारुद्र का महातांडव’, मार्क्स और एंगेल्स द्वारा कम्युनिस्ट घोषणापत्र के विभिन्न प्रकाशनों के लिए लिखी गयी भूमिकाएं आदि टेक्स्ट अलग-अलग मौकों पर चर्चा के केंद्र में आये हैं और संवाद की आतंरिक प्रक्रिया में हम अन्य रचनाओं पर चर्चा जारी रखने की कोशिश करेंगे। हम अभी ज्यादातर हिंदी विभाग से जुड़े छात्र-छ्त्राएँ हैं। हिंदी साहित्य पढ़ने वाले लोगों के बंद घेरे से बाहर अन्य विभागों के लोग जब संवाद में शामिल होंगे तो हमारा संवाद और भी गर्भित होगा। बाँध अरअरा के टूटेंगे। 

ब्लॉग पर सामूहिक चर्चा से निकले आलेख, पर्चे, आलोचनाएँ, पॉडकास्ट आदि लगाए जायेंगे। रचनात्मक साहित्य और ठेठ राजनीतिक आलोचना एक दूसरे के पूरक हैं। रूप का अनुशासन यथासंभव न मानने की चेष्टा होगी। रूप की तानाशाही के विरुद्ध अंतर्वस्तु की अनुगूंज के लिए एक जरिया होने में जो मुख्य बात है वह है ब्लॉग के सामूहिक उत्पादन के तरीके की हम अपनी आपसी बातचीत में आत्मालोचना कितनी और कैसे करते हैं।


                                                                                                                                अनुगूँज

                                                                                                               anugunjj.blogspot.com

                                                                                                                 anugunjj@gmail.com

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