बेरोजगारों का सुराज

                                                 Protests in Bihar over Agnipath. Images: ANI


बिहार बीमार नहीं बेरोजगार राज्य है. चक्का जाम बेरोजगारों की फितरत है. इस फितरत से राज-सत्ता को भय लगता है. ये सबकुछ जो हमारे आस-पास है- ये सारी धन-सम्पदा, ये विज्ञान-वैभव, ये रेल और सड़कें, ऊँची इमारतें और इमारतों में दुनियाभर के सामान- खाने के, नहाने के... ये सबकुछ है फिर भी हमारा नहीं है. न प्रेम हमारा है न नदियाँ हमारी हैं न पहाड़ या अनाज. ये सबकुछ होकर भी हमारा नहीं है इसलिए हम बेरोजगार हैं. इस पराई सत्ता को ‘जलाने-मिटाने’ में हमें रत्ती भर भी मोह नहीं जागता. उलटे इन परायी शक्तियों जैसी प्रतीत होती सत्ता के मोह से ग्रस्त हमारी दृष्टि का भ्रम टूटता है. निर्माण की अपनी शक्ति भ्रम के टूटने में ही अंतर्भूत है. भ्रम कैसा? जो दिख रहा है उसकी वास्तविकता जैसा. यह भ्रम हमारी संवेदनात्मक क्रियाओं को वस्तू या उत्पाद की महिमा के वशीभूत करने में बनता चलता है. और जब वस्तु या उत्पाद की महिमा टूटती है. ब्रेक होती है. तब बारह-पंद्रह जिलों में इनटरनेट बंद कर दिया जाता है! बेरोजगारों का चक्काजाम समाज के फेटिश चरित्र का सत्य उजागर करता है इसलिए अचानक से सभ्य और अहिंसात्मक आन्दोलन की नैतिकता कुलबुलाने लगती है. उपद्रव का भय सताने लगता है. क्योंकि राज-सत्ता को पता है कि यह चक्का-जाम और आगजनी, यह पत्थरबाजी और जूझ सकने की सामूहिकता वस्तुवत सामाजिक सम्बन्धों के आमूल-चूल रूपांतरण की अंतर्भूत ताकत से भरी हुई है.

राम-मंदिर और राम-नवमी की रैलियों में बिहार के बेरोजगारों को बांधे रखना असम्भव सा हो गया है. चाय-पकौड़ों की भी कई दुकानें खुल गयीं हैं और वहां भी कम्पटीशन इतना तेज है कि टिकना और जीना असंभव लगता है. कोरोना के बाद लौटे बेरोजगार कामगारों को शहर पूरी तरह वापस लेने को तैयार नहीं है. ऑनलाइन और मल्टीनेशनल उत्पादन के लिए कहीं जाने के बजाय जहाँ हैं वहीँ से बेरोजगारों को जोत लेने की सुविधा आई है. सरकार स्टार्टअप दे रही है. पर कहाँ? बची-खुची सरकारी नौकरियों में कुछ आशा है और वहाँ भी भीड़ बहुत बढ़ गयी है. तिस पर समय समय पर ‘अग्नीवीर’ जैसी सरकारी चोंचलेबाजी से हमें नियंत्रित करने की भोंडी नीतियाँ! बिहार के बेरोजगार अब नौकरियों के लिए नहीं. जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं. जिन्दा रहने की इस लड़ाई का सबसे अहम् हिस्सा है जल-जंगल-जमीन पर जारी सरकारी और निजी अधिग्रहण को हटाना. हमारा चक्का-जाम पैसे के कब्जे को हटाए जाने की प्रक्रिया का आरम्भिक कदम है. आरम्भ कौन सी दिशा अख्तियार करता है यह तो आने वाला समय ही बताएगा. परन्तु इतना तय है कि बेरोजगारों के राज्य की राजनीति अब सचमुच बेरोजगार तय कर रहे हैं और चुनावी गुणा-गणित या हिन्दू-मर्दानेपन में हमें बाँधने वाली ताकतों का चाल-चरित्र और चेहरा हमारे सामने दिनों दिन और साफ़ होता जा रहा है. ठेकेदारों की जमात सकते में है. और इसलिए दोनों ओर ‘आग बराबर है लगी हुई’.

अभी तक जुम्मे की नमाज के बाद उपमहाद्वीप में भारतीय राज-सत्ता अपने हिन्दू गठन का चक्का जाम करते नौजवानों को – बेरोजगारों, कामगारों को- ‘मुस्लिम’, ‘विदेशी’ और ‘आतंकवादी’ की पहचानों में सीमित कर भी नहीं पायी थी कि बिहार के बेरोजगारों ने चक्का जाम कर दिया और साथ में जुड़ गए अन्य प्रान्तों के बेरोजगार भी. भेदों और पहचानों की राजनीति में सेंध-मारी करते हुए. एक ओर ढाका से लेकर कश्मीर और फिलिस्तीन तक विरोध करते ‘मुस्लिम’ नौजवान बेरोजगारों के चक्का-जाम में शामिल हुए और अनपहचानेपन की ताकत में बदल गए. उपमहाद्वीप में सर्वहारा क्रान्ति के लिए जरूरी संघर्ष की झलक ऐसी ही अनपहचानी एकजुटता में दिखती है. कश्मीर की पहचान जब भारत में मुस्लिम नौजवानों- कामगारों- बेरोजगारों के विरोध में घुल-मिल कर ‘शाहीन बाग़’ बनती है. जब शाहीन बाग़ के बेरोजगार-कामगार ‘किसान आन्दोलन’ की ताकत बनते बेरोजगारों में घुलमिल कर ‘लाल-किले’ तक निकल आते हैं. और पिछले कुछ समय से तथाकथित बीमार बिहार के नौजवानों के साथ बुलडोजर राज के ख़िलाफ़ लड़ने वाले जहाँगीरपुरी और राँची या हैदराबाद की ‘मुस्लिम’ बेशिकृत आबादी घुल मिल रही है. अगर ग्राम्शी के ‘दक्षिणी या सर्दिनियाँ प्रश्न’ की पड़ताल का कोई समकालीन संदर्भ है तो वह ‘बिहार’ प्रश्न या ‘बेशीकृत आबादी’ का प्रश्न है जहाँ ‘बिहार’ या ‘बेशीकृत आबादी’ दोनों ही एक वर्गीय संकल्पना है. उपमहाद्वीप में सर्वाहारा क्रान्ति के सन्दर्भ में ये संकल्पनाएँ अपनी विशिष्टता में अनपहचाने के उभर-निज-विकसित होने का क्षण है. इस तरह ‘कश्मीर’, ‘मुस्लिम’ या ‘बिहार’ प्रश्न उपमहाद्वीप में भारतीय राज-सत्ता को चुनौती देने के क्रम में उभर आने वाले अपने भीतर के असमंजित और अनजाने सर्वहारा चरित्र की एकजुटता और विस्तार का प्रश्न है. राज-सत्ता के कब्जे को हटाने में बनते अपने विशिष्ट ऐतिहासिक चरित्र की पड़ताल का प्रश्न है. इस पड़ताल की दिशा भारतीय राज-सत्ता के भ्रम के टूटने से तय होती है उसको बनाये रखने के चुनावी या संविधानवादी रास्तों को लगातार आलोचित करती चलती है.

पिछले चालीस एक सालों के दरमियान संगठित क्षेत्र के बड़े कारखानों के मजदूरों और खेत-मजूरों के क्रांतिकारी नेतृत्व में होने वाले आंदोलनों से पैदा हुई पूंजीवादी राजसत्ता की क्राइसिस की प्रतिक्रिया में विकसित पूँजी का नया पुनर्योजन जो सामने आया उसमें हमने एक ओर दिल्ली-NCR जैसे अत्यंत विकसित और उच्च स्वचालित फैक्ट्रियों वाले औद्योगिक और कृषि ज़ोन का विस्तार देखा और दूसरी ओर बिहार जैसे प्रान्तों का उपमहाद्वीप में इस विस्तार के लिए आवश्यक सस्ते और नियंत्रित श्रम के अक्षय श्रोत की तरह खुद को बचाए-बनाये रखने का संघर्ष और उन संघर्षों को मैनेज होते देखा. इक्कीसवीं सदी के पहले दो दशकों में जैसे-जैसे दिल्ली-NCR जैसे औद्योगिक जोंस में और उसके साथ-साथ लगे और एक दुसरे से नाभिनालबद्ध शहरी या शहर जैसे सामाजिक कारखाने में पूँजीवाद विरोधी आन्दोलन तेज होते गए वैसे वैसे ‘प्रवासन के स्थायी स्रोत’ की दिशा और गति को मैनेज करने का नवउदारवादी स्वप्न भी स्थायी संकट में चला गया है. ख़ास तौर से ‘मारूति-मानेसर’ जैसी घटनाओं और उसके साथ ही उभर आने वाले शहरी सामाजिक आंदोलनों की तीव्रता ने पलट कर बिहार जैसे प्रवासी मजदूरों के स्रोत और उसके मैनेजमेंट को गहरे राजनितिक संकट में डाल दिया है. और पिछले तीन सालों में कोरोना के संकट के दरमियान शहर और उसे जिन्दा रखने वाले प्रवासी मजदूरों की ठेकेदारी और उसकी मैनेजरी पूरी तरह चरमरा गयी है. एक ओर जहाँ शहर उन्हें दुबारा पचाने में असमर्थ है (खुद को अतिरिक्त मूल्य उत्पादन के अनुरूप बनाए रखने का संकट जोकि शहरी मजदूरों के आन्दोलन से पैदा हुआ है) दूसरी ओर खुद को मजदूर या श्रम-शक्ति मात्र की तरह जिन्दा रखने के लिए आवश्यक खेती-किसानी भी शनैः-शनैः अपने और अपने परिवार के भरण-पोषण में नाकाफी होती गयी है. पूँजी और पैसे की दमनकारी और बर्बर ताकत के ख़िलाफ़ बेशीकृत आबादी (जो स्वयं उत्पादन प्रक्रिया में लाये गए उन बदलावों से संभव हुआ है जो बदलाव साठ-सत्तर और अस्सी के दशक के मजदूर वर्ग के हमले के ख़िलाफ़ पूँजी को विकसित करने पड़े थे. मसलन उच्च स्तर का ऑटोमेशन और उसके चलते बड़े पैमाने पर उभरी कौशलहीनता/ डिस्किलिन्ग, बड़ी फोर्ड फैक्ट्रियों का टूटना और बिखरना और टूटने बिखरने से संभव होता पूँजी का संकेन्द्रण और संचयन, हरित क्रान्ति के चलते विकसित भू-उत्पादकता का संकट.. आदि) का अपने जिन्दा रखने का संघर्ष जहाँ एक ओर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश द्वारा घेरी गयी दिल्ली के ‘किसान आन्दोलन’ के रूप में सामने है वहीँ अब कुछ समय से बिहार जैसे प्रदेशों में उभरे बेरोजगारों के चक्का जाम में विकसित हो रहा है.

शहरी आन्दोलनों की आधार भूमि भी पिछले दसेक सालों से इसी बेशीकृत आबादी के अपने जीवन पर अपने दावों को पेश करने और उन्हें हासिल करने में विकसित हुई है. चाहे वह ‘सोलह दिसंबर’ से उभरा स्त्री-मुक्ति का सर्वहारा प्रश्न हो, चाहे विश्वविद्यालयों और उसके आस-पास अपने भविष्य से जूझते छात्रों-बेरोजगारों-कामगारों का विद्रोह हो, कश्मीर की आजादी का सवाल हो या बस्तियों को उजाड़ने की हिन्दू सामूहिकता को निरस्त करना हो. ये सभी संघर्ष जो निश्चित रूप से शोषित और शोषक अस्मिताओं के संघर्ष में प्रतीयमान है सारतः (और ‘सार प्रतीति से अलग नहीं है, फिर भी सार केवल प्रतीति नहीं है’- हीगेल) शहर की तरह अनमैनेजेबल होती गयी बेशीकृत आबादी की अपनी विशिष्ट और विशिष्ट हो कर ही अपनी एकान्तिक सार्वभौमिकता में सर्वहारा अभिव्यक्तियाँ हैं. इन आन्दोलनों में शहर की एक सर्वथा भिन्न कल्पना सक्रिय है. इनके भीतर कम्युनाइजेशन का शहरी दावा है. प्रतिरोध का यह बल शहरों में पूँजी-विरोधी मुक्त-क्षेत्र के निर्माण की वास्तविक संभावना में अंतर्भूत है. दुनिया भर के शहरों के मैनेजर जो कि अंततः शहर और गाँव के सामाजिक श्रम-विभाजन को बनाये और बचाए रखने के ठेकेदार हैं इस अंतर्भूत संभावना से डरे हुए हैं. अमित शाह जैसे ठेकेदारों को इस वास्तविक दुश्मन का ठीक-ठीक एहसास है और अकारण नहीं कि आतंरिक सुरक्षा सम्बन्धी अपनी गोपनीय बैठकों में वह दुनिया भर के शहरों में विकसित हो रहे मुक्त क्षेत्रों की तरह दिल्ली में भी शहरी मुक्त-क्षेत्रों की उपस्थिति और संभावना के डर से निपटने का आदेश लिए-दिए घूम रहा है. मुक्त-क्षेत्र की वास्तविक संभावना और उसकी प्रतिरोधी निषेधात्मक उर्जा बेशीकृत आबादी की तरह खुद को पूँजी के विरुद्ध और उसके बगैर जिन्दा रहने के संघर्ष में ही अंतर्भूत है.

आज जब बिहार के बेरोजगारों का आक्रामक संघर्ष सामने आ रहा है तो निश्चित रूप से हमें इस मुक्त क्षेत्र या सामूहिकीकरण या जिसे कुछ मार्क्सवादी कॉमनिंग कहते हैं उसकी अंतर्भूत संभावना का विकास करना जरूरी हो जाता है ताकि हम न केवल यहाँ अपने संघर्ष को उचित परिप्रेक्ष्य प्रदान कर पाएँ बल्कि शहरी मुक्त-क्षेत्रों के संघर्ष के लिए जरूरी फौरी कारवाई को भी संगठित कर सकें. पूँजी के सामाजिक सम्बन्धों के विरुद्ध जिन्दा रहने के इस संघर्ष में अंतर्भूत क्रांतिकारी दीप्ति को दबाने और ढकने तथा आन्दोलनों को सरकारी नौकरियों या महज रोजगार गारंटी के चुनावी दावों और योजनाओं में खपाने या किसी हद तक इसी व्यवस्था में बेहतर विकल्प की छलनाओं का प्रचार-प्रसार करने वाली ताकतों का पर्दा फाश करना तात्कालिक कार्यभार है. इस दीप्ति को सामाजिक जनवादी ताकतें आज प्रत्यक्षतः केवल अपने सरकारी स्वार्थ और व्यापक रूप से पार्टी में घुस आये कैरियरवादी प्रवृत्तियों की शह पर दबाने की कोशिश कर रही है और अपनी इस कोशिश में चाहे अनचाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कर्मठ युवाओं को फासीवादी ताकतों की अनुगामिनी बना रही हैं. चुनावी या गैर-चुनावी राजनीति में शामिल बेरोजगार-कामगार-नौजवानों-छात्रों की क्रांतिकारी पांतों के लिए आज आन्दोलन के भीतर- बेशीकृत आबादी के जीवन संघर्षों के भीतर पैठ कर जीवन के मुक्त क्षेत्र या कम्युनाइजेशन या मार्क्स के शब्दों में कहें तो सहयोगी उत्पादकों की तरह समाज के सामूहिक आत्मनिर्णय के प्रयासों में शामिल होने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है. और इस रास्ते पर दुनियाभर में पूँजी के परम विकास की सीमा पर पतित परिस्थितयों के विरुद्ध और उससे परे हम आंदोलित हैं. चियापास के जपतिस्ता विद्रोही हों या रोजोवो के मुक्त-क्षेत्र से लेकर दिल्ली, ढाका, कश्मीर, बिहार, तेलंगाना और कोलोम्बो तक...बेशीकृत आबादी के रोजमर्रा के संघर्ष में हम आंदोलित हैं. इसलिए अगर बिहार भारतीय राजसत्ता में एक दरार है तो हमें उसे बढ़ाने, फैलाने और नयी दुनिया गढ़ लेने की अपनी फौरी कारवाई में बदलना होगा. और जैसा कि प्रख्यात मार्क्सवादी इस्तवान मेस्जरोस कहते हैं कि समाजवाद की यह फौरी कारवाई हमारा ऐतिहासिक उत्तरदायित्व है जो अब भार हो चला है. पूँजी अब केवल विनाश के उत्पादन का संबंद्ध है. उसमें विकास असंभव है. यहाँ विकास केवल बर्बरता है. मनुष्यता के उच्छेद की वास्तविकता से ग्रस्त पूँजीवाद के विरुद्ध रोजा लुक्सेम्बर्ग का यह नारा पहले के किसी भी समय के मुकाबले ज्यादा प्रासंगिक और फौरी हो गया है: या तो समाजवाद या फिर केवल बर्बरता!                                                           

 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

निरंकुशतावाद, लोकतंत्र और सर्वहारा की तानाशाही

घरेलू काम के लिए मजदूरी -सेलविया फेडरिकी

कम्युनिज़्म का अ-व्याकरण