संदेश

जनवरी, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बिहार में बेरोजगारों का चक्काजाम

चित्र
बिहार में बेरोजगारों का चक्काजाम किसान आन्दोलन का चक्का जाम अब बेरोजगारों ने अपने जिम्मे कर लिया है। सड़कों के साथ अब रेल लाइनें जाम की जा रही हैं। घर और नौकरी के बीच कोचिंगों को बनाते, कोचिंगों में फंसे बेरोज़गार भिखना पहाड़ी में कश्मीरी ढंग की पत्थरबाजी और बैरीकेडिंग को याद कर रहे हैं। क्या अपने अतीत से वर्तमान तक फैले गहरे अँधेरेपन को अस्वीकार करते हुए- जान की जोखिम उठाते हुए- जीवन के दावेदार ये बेरोज़गार जब अपनी सामूहिक कार्यवाई की तरह चक्का जाम की भौतिक ताकत में संगठित होते हैं- कई कई तरीकों से- तो उनमे कोई राजनीतिक चेतना नहीं होती? बार बार यह कहा जा रहा है कि इनका राजनीतिक नेतृत्व नहीं विकसित हो पा रहा। कोई नेता नहीं मिल रहा। कोई प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा। यही इसकी सीमा है। ऐसा कहते हुए कहीं हम आन्दोलन के चेहराविहीन चरित्र से घबरा कर उसे चेहरे की राजनीति में बंद तो नहीं कर देना चाहते? पिछले तीसेक सालों के दरम्यान और मौजूदा सरकार के दौरान और भी बर्बर तरीके से राजनीति ख़ास कर वोट की राजनीति चेहरों के इर्द गिर्द सिमटती जा रही है। बिना किसी चेहरे या प्रतिनिधि के लोगों को लगता ही नहीं कि

हमारे बारे में

हमारे बारे में... हम बिहार के विभिन्न इलाकों से आने वाले और पटना विश्वविद्यालय में पढ़ने-पढ़ाने का काम करने वाले कुछ विद्यार्थियों द्वारा आपसी खुले संवाद के एक जरिये की तरह ब्लॉग बनाने की कोशिश कर रहे है।  हमलोग पिछले कुछ महीनों से चलते-ठहरते आपस में कुछ बात-चीत करते रहे हैं। इस बात-चीत में एक बात यह निकल कर आई है कि हम आपसी-मेलजोल और बातचीत के क्रम में पहचान की आलोचना करेंगे। हम अपनी-अपनी पहचानों के साथ समाज में हैं। और हम जानते हैं कि पहचानें शोषण का कारण बनती हैं। शोषण अपनी विशिष्ट पहचान को बनाये रखने में है। मालिक-मजूर, औरत-मर्द, अवर्ण-सवर्ण, उत्पीडित-उत्पीड़क आदि भेद पहचानों के संघर्ष और उसके शत्रुतापूर्ण चरित्र की ओर इशारा करते हैं। पहचानों की आलोचना का अर्थ है कि हम दलित हैं, औरत हैं, मुसलमान है, काले हैं और इसलिए सवर्णों के, मर्दों के, हिंदूओं के, गोरों के ख़िलाफ़ हैं लेकिन केवल इतना ही नहीं है, हम अपने दलित होने, औरत होने, मुसलमान या काले होने के ख़िलाफ़ भी हैं। हम कमजोर होने, शोषित या प्रताड़ित किये जाने के ख़िलाफ़ हैं। हम बार-बार दमित अस्मिताओं की तरह खुद को बनाये रखने के ख़िलाफ़ हैं। ह