बिहार में बेरोजगारों का चक्काजाम
बिहार में बेरोजगारों का चक्काजाम किसान आन्दोलन का चक्का जाम अब बेरोजगारों ने अपने जिम्मे कर लिया है। सड़कों के साथ अब रेल लाइनें जाम की जा रही हैं। घर और नौकरी के बीच कोचिंगों को बनाते, कोचिंगों में फंसे बेरोज़गार भिखना पहाड़ी में कश्मीरी ढंग की पत्थरबाजी और बैरीकेडिंग को याद कर रहे हैं। क्या अपने अतीत से वर्तमान तक फैले गहरे अँधेरेपन को अस्वीकार करते हुए- जान की जोखिम उठाते हुए- जीवन के दावेदार ये बेरोज़गार जब अपनी सामूहिक कार्यवाई की तरह चक्का जाम की भौतिक ताकत में संगठित होते हैं- कई कई तरीकों से- तो उनमे कोई राजनीतिक चेतना नहीं होती? बार बार यह कहा जा रहा है कि इनका राजनीतिक नेतृत्व नहीं विकसित हो पा रहा। कोई नेता नहीं मिल रहा। कोई प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा। यही इसकी सीमा है। ऐसा कहते हुए कहीं हम आन्दोलन के चेहराविहीन चरित्र से घबरा कर उसे चेहरे की राजनीति में बंद तो नहीं कर देना चाहते? पिछले तीसेक सालों के दरम्यान और मौजूदा सरकार के दौरान और भी बर्बर तरीके से राजनीति ख़ास कर वोट की राजनीति चेहरों के इर्द गिर्द सिमटती जा रही है। बिना किसी चेहरे या प्रतिनिधि के लोगों को लगता ही नहीं कि...